Saturday, 11 July 2015

♥♥प्रेम घटक...♥♥

♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥प्रेम घटक...♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥
तुम्हें लगा वो मृगतृष्णा थी, मुझे लगा वो प्रेम घटक था। 
मैं अपने मन से रत्नाकर, तुम्हे लगा के मैं पावक था। 
अपने भावों का सत्यापन, निशा दिवस तुमसे करके भी,
तुमने संज्ञा दे दी मुझको, मैं पीड़ा का संवाहक था। 

अविरल जब है प्रेम की धारा, उसे लोग बाधक करते हैं। 
नहीं सुनेगे भाव किसी के, केवल अपनी हठ करते हैं। 

श्राप दिया उसने ही मुझको, मैं तो जिसका आराधक था। 
तुम्हें लगा वो मृगतृष्णा थी, मुझे लगा वो प्रेम घटक था.... 


मैं मानव था, इच्छा भीं थी, पर वो भी जगदीश नहीं थे। 
मेरा मन-तन उन जैसा था, क्या उनके तन शीश नहीं थे। 
मैं भी जन था हाड़ मांस का, रक्त मेरे घावों में भी है,
क्यों कर उनके शब्दकोष में, मेरे हित-आशीष नहीं थे। 

क्या अपराध किया जो मैंने, उनको अपना सब कुछ माना। 
जिसके अश्रु पान किये थे, उसने मेरा दुःख न जाना। 

मुझको काटा निर्ममता से, वृक्ष में जबकि फलदायक था। 
तुम्हें लगा वो मृगतृष्णा थी, मुझे लगा वो प्रेम घटक था.... 

रिक्त हो गया कोष शब्द का, न कुछ भी कहने का मन है। 
अब तो इतना मान लिया के, दंड भोगना ही जीवन है। 
"देव" प्रेम के पूर्ण भाव से, सींचके पौधे भी क्या पाया,
मेरे पांवों में कांटे और, मेरे हिस्से सूखा वन है। 

सीख लिया है अनुभूति की, गंगा नहीं बहाई जाये। 
जो नहीं सुनता भाव वंदना, उसको नहीं सुनाई जाये। 

वो सक्षम थे, सुन सकते थे, मैं उनके सम्मुख याचक था। 
तुम्हें लगा वो मृगतृष्णा थी, मुझे लगा वो प्रेम घटक था। "

.........चेतन रामकिशन "देव"………
दिनांक-१२.०७.२०१५ 
" सर्वाधिकार C/R सुरक्षित।  

Friday, 10 July 2015

♥♥सूखी हथेली...♥♥


♥♥♥♥♥♥♥♥♥सूखी हथेली...♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥
रही हथेली सूखी सूखी, बारिश में फैलाई भी थी। 
न बख्शा ज़ख्मों को मरहम, चोट उन्हें दिखलाई भी थी। 
आज वो लेकर हुनर प्यार का, मुझसे दूर गया तो क्या है,
एक दिन मुझको रीत प्यार की, उसने ही सिखलाई भी थी। 

लेकिन जब जाना होता है, तो आना ये क्यों होता है। 
कोई बिछड़ कर जाता है तो, दिल आखिर ये क्यों रोता है। 
यदि कुचलना ही होता है, यौवन धारित हरे वृक्ष हो,
तो मानव फिर बीज नेह के, किसी के मन में क्यों बोता है। 

चलो जिंदगी गयी भी तो क्या, क़र्ज़ में यूँ तो पाई भी थी। 
रही हथेली सूखी सूखी, बारिश में फैलाई भी थी.... 

चलो दशा ये अपने मन की, और पीड़ा ये अंतर्मन की। 
न ख़्वाहिश हमको मलमल की, न हसरत मुझको सावन की। 
"देव" लिखा है जो कुदरत ने, शायद ये परिदृश्य वही है.
न इच्छा है पुनर्जन्म की, न चाहत है नवजीवन की। 

भूल गया सब गति शीलता, जो अधिगम से आई भी थी। 
रही हथेली सूखी सूखी, बारिश में फैलाई भी थी। "

.........चेतन रामकिशन "देव"………
दिनांक-११.०७.२०१५ 
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♥दूर जाने की...♥

♥♥♥♥♥दूर जाने की...♥♥♥♥♥♥
दूर जाने की बात करने लगे। 
तुम उदासी की रात करने लगे। 

क्या मिले या नहीं मिले कुछ भी,
बिन लड़े अपनी मात करने लगे। 

जिससे दिल छलनी हो, बहें आंसू,
तुम भी वो वाकयात करने लगे। 

था यकीं जिनपे खुद पे ज्यादा,
वो भी गैरों सा, घात करने लगे। 

हार जाऊं, मैं तेरा मंसूबा,
पीठ पीछे बिसात करने लगे।  

प्यार में छोटा, क्या बड़ा कोई,
आज मजहब, क्यों जात करने लगे। 

"देव" हम दोस्त थे, नहीं दुश्मन,
हमसे क्यों एहतियात करने लगे। "

.........चेतन रामकिशन "देव"………
दिनांक-१०.०७.२०१५  
" सर्वाधिकार C/R सुरक्षित।

Monday, 6 July 2015

♥♥अंगारे...♥♥

♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥अंगारे...♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥
काटी रात जहर पीकर के, अब दिन में भी अंगारे हैं। 
झूठ की हिस्सेदारी जीती, और सच के प्रहरी हारे हैं। 
अपना मुख अमृत से भरकर, मुझको सौंपे ग़म के प्याले,
मेरे घर को दिया अँधेरा, खुद के घर में उजियारे हैं। 

नहीं पता क्यों लोग जहाँ के, इतने पत्थर हो जाते हैं। 
उनपे कुछ भी नहीं बीतती, घायल मरकर सो जाते हैं। 

बड़ी कष्ट की तिमिर की बेला, घर आँगन में अंधियारे हैं। 
काटी रात जहर पीकर के, अब दिन में भी अंगारे हैं...... 

बस उपहास किया करते हैं, वो अपने झूठे तथ्यों पर। 
तेज बोलकर दिखलाते हैं, वो अपने हितकर कथ्यों पर। 
"देव" किसी की आह सुनें न, बस स्वयंभू हो जाते हैं,
उनको मतलब नहीं किसी से, दृष्टि खुद के मंतव्यों पर। 

दंड दिया है लेकिन कहते, हम तो किस्मत के मारे हैं। 
काटी रात जहर पीकर के, अब दिन में भी अंगारे हैं। "


.........चेतन रामकिशन "देव"………
दिनांक-०७.०७.२०१५ 
" सर्वाधिकार C/R सुरक्षित। 
  

Thursday, 2 July 2015

♥♥♥चाँद ...♥♥♥

♥♥♥♥♥♥♥चाँद ...♥♥♥♥♥♥♥♥♥
चाँद हो तुम मेरी नज़र के लिये।
तुम ही रौनक हो मेरे घर के लिये।

तुम उजाला हो, रौशनी की किरण,
तुम ही सजदा हो, मेरे सर के लिये।

तेरे होने से, मैं रचूँ कविता,
तू जरुरी है के, बहर के लिये।

जिंदगी तेरे बिन अपाहिज सी,
तुम ही ख्वाहिश हो, रहगुजर के लिये।

चंद लम्हों का साथ कम लगता,
मेरी हो जाओ, उम्र भर के लिये।

रात के ख्वाबों का मिलन तुम हो,
तुम ही सूरज हो के, सहर के लिये।

"देव" तुम बिन है रास्ता तन्हा,
साथ हो जाओ तुम, सफ़र के लिये। "

..........चेतन रामकिशन "देव"………
दिनांक-०२.०७.२०१५
" सर्वाधिकार C/R सुरक्षित।