Wednesday, 22 October 2014

♥♥दिवाली...♥♥

♥♥♥♥♥दिवाली...♥♥♥♥♥♥♥♥
दीप घर घर जलें दिवाली पर। 
लोग दिल से मिलें दिवाली पर। 

सूरतें सबकी चाँद जैसी खिलें,
चांदनी हम मलें दिवाली पर। 

हमसफ़र हो नहीं किसी का जुदा,
साथ, संग संग चलें दिवाली पर। 

एक दिन का ही बस उजाला नहीं,
ऐसे ज़ज़्बे पलें दिवाली पर। 

मुफ़लिसों को भी मिल सके जो दवा,
घाव फिर न छिलें दिवाली पर। 

नहीं औरत को जानवर कुचले,
अश्क़ न फिर मिलें दिवाली पर। 

"देव " चाहत के साथ हो न दगा,
नहीं अरमां छलें दिवाली पर। "

...........चेतन रामकिशन "देव"……...   
दिनांक- २२.१०.२०१

Monday, 20 October 2014

♥♥♥कैसी दीवाली....♥♥♥


♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥कैसी दीवाली....♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥
मन में पीड़ा, रुधिर शीत है, निर्धन के घर कंगाली है। 
एक तरफ खरबों के मालिक, एक तरफ ये घर खाली है। 
लोग रौंदकर किसी के दिल को, यहाँ जलाते आतिशबाज़ी,
अंधियारे से घिरे करोड़ों, आखिर कैसी दीवाली है।

लोग बहुत ही निर्ममता से, क़त्ल प्यार का कर देते हैं। 
कभी किसी मासूम का जीवन, चीख-आह से भर देते हैं। 
इतना करके भी जब उनको, चैन, ख़ुशी, उल्लास नहीं हो,
तब वो देखो रूह तलक का, सौदा पल में कर देते हैं। 

दीवारों की मिट्टी उखड़ी, आँगन में भी बदहाली है।  
अंधियारे से घिरे करोड़ों, आखिर कैसी दीवाली है...

फटी हथेली, टूटी रेखा, आँखों में भी सूनापन है। 
कल भी खंडहर बने हुए थे, आज भी पतझड़ सा जीवन है। 
"देव" वो उनकी लाश तलक को भी चंदन से फूंका जाये,
उसे मयस्सर कफ़न तक नहीं, क्यूंकि वो निर्धन का तन है। 

चाँद सरीखा रूप है जिनका, भीतर से नियत काली है। 
अंधियारे से घिरे करोड़ों, आखिर कैसी दीवाली है। "

.....................चेतन रामकिशन "देव"…….............
दिनांक- २१.१०.२०१


Tuesday, 14 October 2014

♥♥दूरियां....♥♥

♥♥♥♥♥♥♥दूरियां....♥♥♥♥♥♥♥♥
क्या मिलेगा जो दूर जाओगे। 
मुझको किस तरह से भुलाओगे। 

धूप जब तेज हो जलायेगी,
मेरे साये को ही बुलाओगे। 

अपनी गलती का इल्म होगा जब,
शर्म से सर को तुम झुकाओगे। 

मेरी मिन्नत को तुमने ठुकराया,
कैसे मंजर वो भूल पाओगे!

मेरी बर्बादी का सबब तुमसे,
रूह से अपनी क्या छुपाओगे। 

आंच का तुमपे भी असर होगा,
मेरी यादों को जो जलाओगे। 

"देव" ये प्यार न रुका अब तक,
ख़ाक तुम इसको रोक पाओगे। "


.........चेतन रामकिशन "देव"……|
दिनांक- १४.१०.२०१४

Monday, 13 October 2014

♥♥♥सामना...♥♥♥



♥♥♥♥♥♥सामना...♥♥♥♥♥♥♥
रंग चाहत का जब उतरने लगे। 
प्यार का फूल जब बिखरने लगे। 
कर लो गुमनाम खुद को उस लम्हा,
सामना होना जब अखरने लगे। 

वो जिन्हे कद्र नहीं चाहत की,
उनसे उम्मीद क्यों लगाते हो। 
सोखने वो न आएंगे तो फिर,
बेवजह अश्क़ क्यों बहाते हो। 

हौंसला रखना तुम बहुत ज्यादा,
कोई अपना जो पर कतरने लगे। 

रंग चाहत का जब उतरने लगे....

नाम के हमसफ़र से अच्छा है,
खुद ही तन्हा सफर को तय करना। 
जब कोई हाथ न बढ़ाये तो,
मंजिलों पे खुद ही विजय करना। 

जीत जाओगे तुम यहाँ एक दिन,
दिल का अंधेरा जब निखरने लगे। 

रंग चाहत का जब उतरने लगे....

साथ होता तो देखो अच्छा था,
पर बिना साथ के नहीं डरना। 
"देव" मुश्किल से आदमी हो बने,
खुद में अवसाद तुम नही करना। 

गीत एक अच्छा फिर बनेगा सुनो,
मन में ख़ामोशी जब पसरने लगे। 

रंग चाहत का जब उतरने लगे। 
प्यार का फूल जब बिखरने लगे।"

.........चेतन रामकिशन "देव"……|
दिनांक- १४.१०.२०१४

♥♥♥परिंदा....♥♥♥

♥♥♥♥♥♥♥♥♥परिंदा....♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥
शाम होते ही मेरे घर को लौट आता है। 
एक परिंदा है जो मुझसे वफ़ा निभाता है। 

उसकी आवाज की बेशक मुझे पहचान नहीं,
प्यार के बोल मगर मुझको वो सुनाता है! 

उसमें दिख जाती है, उस वक़्त देखो माँ की झलक,
मुझको ठंडक के लिए, पंख जो फैलाता है। 

लोग तो मिन्नतें करके भी छीनते सांसें,
ये परिंदा है जिसे, छल न कोई आता है। 

कोई मजहब ही नहीं, सबके लिए अपना वो,
कभी मंदिर, कभी मस्जिद में घर बनाता है। 

कभी तन्हाई में जो करता गुफ्तगू उससे,
अपनी पलकों को बड़े हौले से झुकाता हैं। 

"देव" उस आदमी के होंसले नहीं मरते,
वो परिंदो का हुनर, जिस किसी को आता है। "

.............चेतन रामकिशन "देव"…...........
दिनांक- १३.१०.२०१४ 

Sunday, 12 October 2014

♥♥बरताब....♥♥

 ♥♥♥♥♥♥बरताब....♥♥♥♥♥♥♥
अपने बरताब याद अाने लगे। 
दर्द में हम जो तिलमिलाने लगे। 

हमको आंधी पे तब यकीन हुआ,
घर को तूफान जब हिलाने लगे। 

अपनी कमियां भी हमको दिखने लगीं,
जब नज़र खुद से हम मिलाने लगे। 

थी तपिश, आह और तड़प, चीखें,
लोग जब मेरा दिल जलाने लगे। 

मन के भीतर का न मरा रावण,
तीर दुनिया पे हम चलाने लगे!

जो गलत बात थी वो छोड़ी नहीं,
मौत को हम करीब लाने लगे। 

"देव" रखा रहा गुरुर मेरा,
लोग शव मेरा जब जलाने लगे। "

....चेतन रामकिशन "देव"…..
दिनांक- १२.१०.२०१४




Saturday, 11 October 2014

♥♥फूल की पंखुरी...♥♥


♥♥♥♥फूल की पंखुरी...♥♥♥♥
फूल की पंखुरी की जैसी हो। 
तुम धरा पर परी के जैसी हो। 

आये अधरों पे प्रेम का वादन,
तुम किसी बांसुरी के जैसी हो। 

देखकर तुमको मचल जाये,
रेशमी तुम, जरी के जैसी हो।  

तेरे छूने से हो गया मैं नवल,
प्रेम की अंजुरी के जैसी हो। 

"देव" तुझसे ही मैं रचूँ कविता,
भाव की तुम झरी के जैसी हो। "

......चेतन रामकिशन "देव"…..
दिनांक- ११ .१०.२०१४




Wednesday, 8 October 2014

♥प्रेम-अनुरोध...♥



♥♥♥♥♥♥♥♥♥प्रेम-अनुरोध...♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥
नयन नींद से रिक्त हो गए, स्मृति में छवि तुम्हारी। 
स्वांस भी आती कठिनाई से, गतिशीलता हुयी है भारी।
स्पंदन भी मौन हो गया, और स्वप्न भी टूट गए हैं,
प्रेम समर्पित कर दो जो तुम, रहूँ तुम्हारा मैं आभारी। 

सखी तुम्हारे प्रेम को पाकर, प्राण हमारे जीवन पायें!
मेरे पतझड़ से जीवन में, फूल गुलाबों के खिल जायें। 

बिना प्रेम के जल से सूखी, मेरे जीवन की ये क्यारी। 
नयन नींद से रिक्त हो गए, स्मृति में छवि तुम्हारी। 

सखी तुम्हारा संग मिलने से, हर्ष की छाया हो जायेगी। 
और तुम्हारे प्रेम की वर्षा, मेरे अश्रु धो जायेगी। 
तुम और मैं सब साथ चलेंगे, आशाओं की जोत जलेगी,
तिमिर की बेला इस ज्योति से, क्षण भर में ही खो जायेगी। 

सखी है तुमसे करुण निवेदन, मेरी मन की हालत जानो। 
मैं मिथ्या के वचन न बोलूं, मेरे शब्दों को पहचानो। 

मेरी मन की अनुभूति की, जमा पूंजी सब हुयी तुम्हारी। 
नयन नींद से रिक्त हो गए, स्मृति में छवि तुम्हारी। 

भाव निवेदन जितने थे, सब तुमको अर्पित कर डाले। 
मैंने अपनी पीड़ाओं के, तुमको देखो दिए हवाले। 
"देव" तुम्हारा निर्णय मेरे पक्ष में आये तो अच्छा है,
नहीं तो अपने मुख जड़ लूंगा, मौन व्रत के मोटे ताले। 

अनुरोधों की सीमा होती, देरी से ये मिट जाते हैं। 
और सरस भावों के धागे, खंड खंड में बँट जाते हैं।   

चलते चलते अनुरोधों से, मैं तुमपे होता बलिहारी। 
नयन नींद से रिक्त हो गए, स्मृति में छवि तुम्हारी। "

.....................चेतन रामकिशन "देव"….................
दिनांक-०९ .१०.२०१४

"
प्रेम- एक ऐसी विवशता की दशा जब देता है तो अनुरोधों और निवेदनों के वहिस्कृत/ख़ारिज होने की आशंका बहुत पीड़ा देती है, जिस सम्बंधित पक्ष के लिए भाव पनपते हैं, उसके प्रति आसक्त होने की अवस्था में हमारा मन अनेकों निवेदनों/अनुरोधों को समर्पित करता है, मन को आशा होती है कि उसे उसकी चाह मिल जाये, परन्तु सहनशीलता की एक अवस्था भी होती है, उसके निगमन के अंतर्गत सही समय पर अनुरोधों की अपेक्षा पूरी न होना सामने वाले के लिए कष्टकारी हो जाता है, तो आइये चिंतन करें। 

"
सर्वाधिकार सुरक्षित,  मेरी ये रचना मेरे ब्लॉग पर पूर्व प्रकाशित। "





Tuesday, 7 October 2014

♥जीने का जतन....♥

♥♥♥♥♥♥जीने का जतन....♥♥♥♥♥♥♥♥
चलो हर हाल में जीने का, जतन करते हैं। 
भूल न हो के दुबारा, ये मनन करते हैं!
जैसे हम खुशियों को, अपने गले लगाते हैं,
आओ वैसे ही चलो, दुख को वहन करते हैं। 

हार आतीं हैं मगर, जीत की लगन रखना। 
खून में अपने होंसले की, तुम अगन रखना!
दर्द होता है अगर, उसकी दवा ढूंढो तुम,
अपनी नज़रों में उड़ानों का, तुम गगन रखना। 

मुश्किलों को भी चलो हँसके, सहन करते हैं। 
चलो हर हाल में जीने का, जतन करते हैं। 

हर किसी को यहाँ सब कुछ ही नहीं मिलता है। 
फूल हर रोज ही खुशियों का नहीं खिलता है। 
"देव" उम्मीद के दीये, मगर बुझाओ मत,
मन के विश्वास से, पर्वत भी यहाँ हिलता है। 

जीते जी आओ निराशा का, दहन करते हैं। 
चलो हर हाल में जीने का, जतन करते हैं। "

..........चेतन रामकिशन "देव"…..........
दिनांक- ०८.१०.२०१४ 

Monday, 6 October 2014

♥♥♥अमन...♥♥♥


♥♥♥♥♥♥अमन...♥♥♥♥♥♥♥♥
आदमी का हो आदमी से मिलन।
द्वेष, हिंसा का ये थमेगा चलन। 
प्रेम के फूल जब खिलेंगे यहाँ,
"देव" खिल जायेगा अपना ये वतन। 

खून मेरा हो या तुम्हारा हो,
रंजिशों में क्यों हम बहायें इसे। 
देश ये देखो हम सभी का है,
ठोकरों से क्यों हम गिरायें इसे। 

आग गर ऐसे ही दहकती रही,
बेगुनाहों का ही जलेगा बदन। 

आदमी का हो आदमी से मिलन ....

नफरतों से नहीं मिला नहीं कुछ भी,
देखो इतिहास की, गवाही है। 
गोद अम्मी की, माँ सूनी हुई,
हर तरफ चीख है, तबाही है। 

अब चलो रंजिशों को छोड़ चलो,
देश में आओ अब करेंगे अमन!

आदमी का हो आदमी से मिलन।
द्वेष, हिंसा का ये थमेगा चलन। "

......चेतन रामकिशन "देव"…...
दिनांक- ०७.१०.२०१४


Sunday, 5 October 2014

♥आंसुओं की लहरें...♥


♥♥♥♥आंसुओं की लहरें...♥♥♥♥
रंग तस्वीर के सुनहरे हैं। 
घाव पर दिल में देखो गहरे हैं। 

ठोकरें मारके वो आगे बढे,
हम मगर उस जगह ही ठहरे हैं। 

दिल को देखा तो स्याह निकला वो ,
चाँद जैसे भले ही चहरे हैं। 

कैसे मुफ़लिस उन्हें बताये तड़प,
जिनपे महलों पे इतने पहरे हैं। 

आह सुनकर भी फेर लें मुंह को,
आज के लोग इतने बहरे हैं। 

उनका दिल तो बड़ा ही छोटा मिला,
जीत के जिनके सर पे सहरे हैं!

झील सूखी तो "देव" प्यासे क्यों,
मेरे घर आंसुओं की लहरें हैं। "

......चेतन रामकिशन "देव"…...
दिनांक- ०५.१०.२०१४

Saturday, 4 October 2014

♥कांच का घर...♥

♥♥♥♥♥कांच का घर...♥♥♥♥♥
न ही साहिल है, न किनारा है। 
दर्द में दिल भी बेसहारा है। 

साँस लेने को भी हवा न मिली,
फिर भी इस वक़्त को गुजारा है!

जीतने को बहुत ही दिल जीते,
मेरा दिल खुद से आज हारा है। 

रात भर करवटें बदलता रहा,
हाल, बेहाल अब हमारा है। 

रौशनी पास में नहीं आई,
सामने यूँ तो चाँद, तारा है। 

दोस्ती पत्थरों से हो ही गयी,
कांच का जबके घर हमारा है!

"देव" जिनको समझ नहीं ग़म की,
उनसे मिलना भी न गवारा है।"

.......चेतन रामकिशन "देव"…...
दिनांक- ०५.१०.२०१४