Tuesday, 21 April 2015

♥बिना तुम्हारे...♥

♥♥♥♥♥बिना तुम्हारे...♥♥♥♥♥♥♥♥
मिलन से जब वंचित होता हूँ। 
जाने क्यों कुंठित होता हूँ। 
कुछ भी भाता नही हृदय को,
क्षण क्षण मैं विचलित होता हूँ। 
इसीलिए प्रयास करो तुम, 
निश दिन मुझसे मिला भेंट का,
सखी तुम्हारे दर्शन से मैं,
फूलों सा पुलकित होता हूँ। 

तुमसे है सम्बन्ध प्रेम का, 
तुम बिन सब कुछ रिक्त लगे है। 
तुम बिन चाँद नहीं खिल पाता,
तुम बिन सूरज नहीं जगे है। 

बिना तुम्हारे दिशाहीन मैं,
पग पग पे भ्रमित होता हूँ। 
सखी तुम्हारे दर्शन से मैं,
फूलों सा पुलकित होता हूँ .... 

जब तुम आओ मैं मुस्काउंं,
मैं चोखट पे दीप जलाऊं। 
तुमसे ऐसा गठबंधन है,
बिन तुम्हारे न रह पाऊं। 
"देव" समूचे विश्व पटल पर,
न पर्याय तुम्हारा कोई,
इसीलिए ही तुमसे विरह,
नहीं जरा भी मैं सह पाऊं। 

तुमसे मिलकर जीवन पथ में,
मधु सा मैं मिश्रित होता हूँ। 
सखी तुम्हारे दर्शन से मैं,
फूलों सा पुलकित होता हूँ। "

....चेतन रामकिशन "देव"… 
दिनांक-२१.०४.२०१५ (CR सुरक्षित )

Saturday, 18 April 2015

♥♥♥पत्र तुम्हारे...♥♥♥

♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥पत्र तुम्हारे...♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥
यदा कदा मैं पत्र तुम्हारे, जिस दिन भी खोला करता हूँ। 
तुम तो निकट नही होती हो, शब्दों से बोला करता हूँ। 
साथ जनम तक संग साथ की, जब पढता सौगंध तुम्हारी,
यही सोचकर के तुम आओ, द्वार पुन : खोला करता हूँ। 

जाने कितनी बार हजारों, यूँ ही तेरा पथ देखा है। 
आँख लगी तो मैंने तेरा, स्वर्ण सजीला रथ देखा है। 

तुम्हे देखकर स्वप्नों में भी, हर्षित हो, डौला करता हूँ। 
यही सोचकर के तुम आओ, द्वार पुन : खोला करता हूँ ... 

जब भी एकाकीपन होता, पूर्ण मनन पे तुम छाती हो। 
अपने नैना बंद करूँ तो, नज़र मुझे बस तुम आती हो। 
तेरी कविता का वो गायन, कान में अब भी मधु घोलता,
मुझे देखकर के परिसर में, मंद मंद तुम मुस्काती हो। 

अपने मन की परत परत पर, छवि तुम्हारी ही पाई है। 
याद मुझे आता है तेरा, संग संग होना सुखदायी है। 

तुमसे ज्यों का त्यों कह दूँ मैं, नहीं तनिक तौला करता हूँ। 
यही सोचकर के तुम आओ, द्वार पुन : खोला करता हूँ ...

पढ़ते पढ़ते पत्र की अंतिम, पंक्ति तक नैना जाते हैं।  
रिक्त अभी तक द्वार देखकर, फूल भी सारे मुरझाते हैं।  
"देव" निगाह जाती है मेरी, टंगी तुम्हारी तस्वीरों पर,
तब होता एहसास मुझे के, जाने वाले कब आते हैं। 

तब मैं फिर से नम आँखों से, पत्र तुम्हारा रख देता हूँ। 
यही सोचकर तेरे हाथ का, भोजन है मैं चख लेता हूँ। 

कार्यालय में जाने को मैं, इस्त्री फिर चोला करता हूँ।  
यही सोचकर के तुम आओ, द्वार पुन : खोला करता हूँ। "

...................चेतन रामकिशन "देव"………………..
दिनांक-१८.०४.२०१५ (CR सुरक्षित )

Wednesday, 15 April 2015

♥♥हरफ़...♥♥

♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥हरफ़...♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥
है मुझसे इस कदर नफ़रत, कभी ये बोल तो देते। 
छुपाया राज क्यों दिल में, कभी तुम खोल तो देते। 

बड़ा ही बेरहम होकर, मेरी सांसों को रोका था,
घुटन मैं हूँ जरा तुम कब्र का, मुंह खोल तो देते। 

वो जिनसे था तुम्हें मतलब, अशरफ़ी उनको दे डालीं,
किसी मुफ़लिस की मेहनत का, कभी तुम मोल तो देते।

तुम्हारा रूप चन्दन था, तेरी खुशबु भी प्यारी थी,
महक तुम प्यार की, सांसों में मेरी घोल तो देते।

नहीं कहना मुझे कुछ "देव", मैं खामोश हूँ बेहतर,
जुबां मिल जाती मुझको भी, हरफ़ तुम बोल तो देते। "

………........चेतन रामकिशन "देव"….................
दिनांक-१६.०४.२०१५ (CR सुरक्षित )  

Tuesday, 14 April 2015

♥♥जागता चाँद...

♥♥♥♥♥♥♥♥जागता चाँद...♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥
जागता चाँद ये, मेरी तरह से आधा है। 
क्यों नहीं आया वो, जिससे मिलन का वादा है। 

मुझे तड़पाने को न आये, या फिर वक़्त नहीं,
मैं क्या जानूं के भला, उनका क्या इरादा है। 

मेरा ये हक़ है मिलन का, या फिर मेरे यारों,
मेरी उम्मीद ही उस आदमी से, ज्यादा है। 

मेरी किस्मत मुझे महबूब मिला, फूलों सा,
मेरा किरदार तो दुनिया में, बड़ा सादा है। 

एक लम्हे की जुदाई से, टूट जाता हूँ,
मेरा दिल तो बड़ा कमजोर, इश्क़ज़ादा है। 

मुझसे कहती हैं वो, आ जायेंगी वो मेरी हैं,
क़र्ज़ की तरह भला, इतना क्यों तकादा है। 

"देव" एहसास की, हर लौ पे तेरा नाम लिखा,
बिन मिले लगता ये, जीवन ही बेइरादा है। "

.............चेतन रामकिशन "देव"…............
दिनांक-१४.०४.२०१५  (CR सुरक्षित ) 

Sunday, 12 April 2015

♥♥निकटता...♥♥

♥♥♥♥♥निकटता...♥♥♥♥♥♥
तुम्हें जानने का मन होता,
निकट मानने का मन होता। 
तेरे पग में शूल चुभें न,
धूल छानने का मन होता। 
तुमसे हर पल बातचीत हो,
कुछ कहना, कुछ सुनना चाहूं,
सात जनम तक मिलन करेंगे,
यही ठानने का मन होता। 

प्रेम का सावन जब भी बरसे,
तुमको मैं बाँहों में भर लूँ। 
अपने जीवन के हर क्षण में,
बस तुमको ही शामिल कर लूँ। 

रात मिलन की कभी ढ़ले न,
गति थामने का मन होता। 
सात जनम तक मिलन करेंगे,
यही ठानने का मन होता ...

काव्य हमारा करो अलंकृत,
उसको अनुभूति से भर दो। 
मेरा आँगन तुम बिन सूना,
आकर इसको तुम घर कर दो। 
"देव" जगत में तुम मनभावन,
और तुम्ही प्यारी लगती हो,
मेरे सपने पंख पसारें,
तुम उनको निश्चय से भर दो। 

तुम संग हो तो सदा प्रेम का,
राग तानने का मन होता। 
सात जनम तक मिलन करेंगे,
यही ठानने का मन होता। "

.......चेतन रामकिशन "देव"….....
दिनांक-१२.०४.२०१५ (CR सुरक्षित )

Friday, 10 April 2015

♥♥फांसी का फंदा...♥♥

♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥फांसी का फंदा...♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥
कुदरत का अभिशाप हुआ है, कृषक होना पाप हुआ है।
झूल रहा फांसी पर कृषक, चंहुओर संताप हुआ है।  
कुदरत के इस रौद्र रूप का, कोप बना है ग्राम देवता,
मन दुखता है, कृषक के घर, करुणा भरा विलाप हुआ है। 

सरकारों की क्षति-पूर्ति, उसको ज्यादा से ज्यादा हो। 
न मिथ्या का अनुकरण हो, न कोई कोरा वादा हो। 
सरकारें जब दर्द सुनेंगी, तो कृषक को सुख आयेगा। 
भूखा-प्यासा कृषक फिर से, सब्जी रोटी चख पायेगा। 

भस्म हुये हैं सारे सपने, दुख का इतना ताप हुआ है। 
मन दुखता है, कृषक के घर, करुणा भरा विलाप हुआ है ...

बेटी की शादी का सपना, बेमौसम बारिश ने लूटा। 
क्रूर बनी ओलावृष्टि से, कोमल फसलों का तन टूटा। 
"देव" वो देखो कृषक के घर, चीख हैं या फिर है सन्नाटा,
फसल महीनों पाली लेकिन, एक दो दिन में नाता टूटा। 

आशाओं के जल का संचय, क्षण भर में ही भाप हुआ है। 
मन दुखता है, कृषक के घर, करुणा भरा विलाप हुआ है। "

" कुदरत की मार सह रहे किसानों को सांत्वना, दुआ और स्नेह सहित सादर समर्पित रचना, 
(CR सुरक्षित )

.....................चेतन रामकिशन "देव"….....................
दिनांक-११.०४.२०१५

Tuesday, 7 April 2015

♥♥दस्तूर....♥♥

♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥दस्तूर....♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥
पास भी होकर पास नहीं वो, दूर भी होकर दूर नही है। 
पर वो मुझसे मिल न पाये, इतना भी मजबूर नहीं है। 

अपने आंसू बहा बहा कर, जीवन की खेती को सींचा,
कोई किसी को पानी देगा, अब ऐसा दस्तूर नहीं है। 

बिना जुर्म के सज़ा मुझे दी, आज है क्यूंकि वक़्त तुम्हारा,
समय मगर खुद को दोहराये, वो दिन कोसों दूर नही है। 

तुमको अपना ग़म प्यारा है, मुझको अपने दुख से मतलब,
कौन है ऐसा जिसके दिल में, पीड़ा का नासूर नहीं है। 

उम्मीदों का महल बनाकर, साथ ग़मों के रहना सोना,
तन्हाई से बढ़कर अब तो, मुझको कोई हूर नहीं है।

आज मिली जो दौलत अपने, बीते दिन को भूल गया वो,
किन होठों से कह दूँ बोलों, देखो वो मगरूर नहीं है। 

"देव" घुला है दर्द ज़हर का, गला है नीला, आँख में लाली,
लोग भला कैसे न समझें, वो दारु में चूर नहीं है। "

.....................चेतन रामकिशन "देव"….....................
दिनांक-०८.०४.२०१५

Sunday, 5 April 2015

♥♥ डर...♥♥

♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥ डर...♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥
निकट रहो तुम, दूर न जाओ, रात में तुम बिन डर लगता है। 
तुम बिन आँगन तन्हा तन्हा, सूना सूना घर लगता है।  
बिना तुम्हारे नींद न आये, बेचैनी के भाव पनपते,
बिना तुम्हारी गोद को पाये, व्याकुल मेरा सर लगता है। 

तुमसे मन का गहरा नाता, दूर नहीं तुम जाया कीजे। 
अनजाने में भी विरह का, कहर न मुझपे ढ़ाया कीजे। 

तुम बिन नयन मेरे गीले हों, अश्रु का सागर लगता है। 
निकट रहो तुम, दूर न जाओ, रात में तुम बिन डर लगता है... 

तुम रहती हो साथ अगर तो, सारा आलम खुश रहता है। 
न विरह के भाव पनपते, अपना गम भी चुप रहता है। 
"देव" तुम्हारी बातें होतीं, चित्त को हर्षित करने वाली,
और पाकर के तेरी निकटता, भावों का साग़र बहता है। 

प्रेम का तुमसे उद्बोधन है, वाणी नहीं दबाया कीजे। 
मैं जब बोलूं, मिलन करेंगे, तो एक दम आ जाया कीजे ।

तुम बिन देखो हवा का झोंका, मानो के नश्तर लगता है। 
निकट रहो तुम, दूर न जाओ, रात में तुम बिन डर लगता है। "

.......................चेतन रामकिशन "देव"…........................
दिनांक-०५.०४.२०१५

Friday, 3 April 2015

♥प्रेम-सार...♥♥

♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥प्रेम-सार...♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥
तुम्हें भुला दूँ आखिर कैसे, तुमसे मन का तार जुड़ा है। 
तुम्हें देखकर दुनिया देखूं, तुमसे ही संसार जुड़ा है। 
रोज तुम्हारे एहसासों को, मैं चुपके से छू लेता हूँ,
तुम लगती हो सबसे प्यारी, क्यूंकि तुमसे प्यार जुड़ा है। 

उजली धूप सुबह की तुमसे, ख्वाब रात के तुम लाती हो। 
तारे भी पुलकित होते हैं, सखी अगर तुम मुस्काती हो। 

मेरे घर की तुम संरचना, तुमसे ही आधार जुड़ा है। 
तुम्हें भुला दूँ आखिर कैसे, तुमसे मन का तार जुड़ा है...

तुम आलोचक हो शब्दों की, मगर विमोचन तुमसे ही है। 
गंगाजल सी पावन हो तुम, मन का शोधन तुमसे ही है। 
"देव" तुम्हारा साथ मिला तो, गति बढ़ी मेरे चलने की,
कुशल समीक्षक, सही गलत का, अवलोकन भी तुमसे ही है। 

तुम जीवन को सम्पादित कर, पीड़ा को विस्मृत करती हो। 
तुम ऊर्जा के सबल भाव से, नया पाठ उद्धृत करती हो। 

तुम बिन मेरा जीवन रीता, तुमसे मेरा सार जुड़ा है।  
तुम्हें भुला दूँ आखिर कैसे, तुमसे मन का तार जुड़ा है। "

...................चेतन रामकिशन "देव"…..................
दिनांक-०३.०४.२०१५

Thursday, 2 April 2015

♥♥♥धूम्रदण्डिका...♥♥♥

♥♥♥♥♥♥♥♥♥धूम्रदण्डिका...♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥
धूम्रदण्डिका के धुयें में, निहित तुम्हारी आकृति है। 
मदिरा के प्यालों से फूटे, अब तेरी ही आवृति है। 
एक दिन था जब नशा सोचकर, मुझको घबराहट होती थी,
पर इतना बदलाव हुआ अब, नशा ही मेरी प्रवृति है। 

हाँ सच है के नशा है घातक, मुझे रोग से भर देता है। 
लेकिन ये भी सच है तेरी, याद को कमतर कर देता है। 
मैंने तो अच्छाई के संग, बहुत आगमन माँगा तुमसे,
किन्तु हर क्षण अनदेखा भी, अमृत को विष कर देता है। 

क्षुब्ध हूँ लेकिन ये धुआं ही, मेरी सारी प्रकृति है। 
धूम्रदण्डिका के धुयें में, निहित तुम्हारी आकृति है... 

दोष नहीं है तुम पर लेकिन, एकाकीपन सौंपा तुमने। 
अनदेखी से मेरे मन में, बीज शूल का रोंपा तुमने। 
"देव" मुझे भी आदर्शों पर, चलना मनमोहक लगता था,
किन्तु मेरे कोमल मन पर, तीर जहर का घोंपा तुमने। 

दंड के क्षण मैं भूल सकूँ न, बड़ी तीव्र ये स्मृति है। 
धूम्रदण्डिका के धुयें में, निहित तुम्हारी आकृति है। "


नोट-मेरी ये रचना किसी को नशे के लिये आमंत्रित नहीं करती है, रचनाकार का भाव मन व्यापक होता है और वह समाज के जिस पहलु को छूता है, उस पर शब्द जोड़ता है। 

..................चेतन रामकिशन "देव"…................
दिनांक-०३.०४.२०१५