Monday, 9 December 2019

♥♥♥ शायद... ♥♥♥

♥♥♥ शायद... ♥♥♥
शायद मिलना नहीं है मुमक़िन,
क्यों फिर उन्हें पुकारा जाए।
हंसकर, रोकर कटेगा जैसे,
तन्हा सफ़र गुज़ारा जाए।
बहुत तपाया आग ने ग़म की,
स्याह हुआ सारा उजलापन,
अपना चेहरा चलो अश्क़ से,
धोकर यहां निखारा जाए।

छूट गया है हाथ, हाथ से,
कदमताल भी नहीं रही है।
मौन हो गए, चुप्पी साधी,
बोलचाल भी नहीं रही है।
अब तो मुझे देखकर के भी,
अपने रुख को बदल रहे हैं।
वो इतने बेदर्द हो गए,
जबकि पत्थर पिघल रहे हैं।

अपने दिल से चलो प्यार का,
गाढ़ा रंग उतारा जाए। 
शायद मिलना नहीं है मुमक़िन,
क्यों फिर उन्हें पुकारा जाए।

मुझे छोड़ना, बेहतर समझा,
उनके मन की वो ही जानें।
जिसको चाहें गैर समझ लें,
जिसको चाहें अपना मानें।
प्यार, मोहब्बत के रिश्ते में,
अब कसमों का दौर नहीं है।
कोई तड़पे, या थम जाये,
किसी को इसका गौर नहीं है।

सुनो "देव" टूटे दर्पण में,
खुद को चलो निहारा जाए।
शायद मिलना नहीं है मुमक़िन,
क्यों फिर उन्हें पुकारा जाए। "

चेतन रामकिशन "देव"
दिनांक- १०.१२.२०१९

Wednesday, 4 December 2019

♥♥♥अलगाव... ♥♥♥

♥♥♥अलगाव... ♥♥♥
स्वयं से ही अलगाव हुआ है,
मन में गहरा घाव हुआ है।
सखी तुम्हारे बहिर्गमन से,
मुझपे ये प्रभाव हुआ है।

तुम संग थीं तो प्रेम था खुद से,
नयन स्वप्न से हरे भरे थे।
साथ तुम्हारा धवल चांदनी,
कभी तिमिर से नहीं डरे थे।
तुम संग थीं तो जीवन पथ पर,
हम एकाकी नहीं हुए थे,
खिले फूल से भरी हथेली,
कंटक क्षण भर नहीं छुए थे।

एक तुम्हारे परिवर्तन से,
सुख का घना अभाव हुआ है।
सखी तुम्हारे बहिर्गमन से,
मुझपे ये प्रभाव हुआ है।

तुम संग थीं तो आकांक्षा थीं,
उत्सव सा जीवन लगता था। 
रात को खुश होकर सो जाना,
और सुबह हंसकर जगता था। 
तुम संग थीं तो अनुभूति के,
सरिता, सागर लहर रहे थे। 
" देव " उड़ानें भरता था मन,
ध्वजा प्रेम के फहर रहे थे। 

शिला खंड जैसा निर्जीवी,
अब मेरा स्वभाव हुआ है। 
सखी तुम्हारे बहिर्गमन से,
मुझपे ये प्रभाव हुआ है। "

चेतन रामकिशन " देव "
०४. १२.२०१९ 

Tuesday, 6 August 2019

♥♥♥रज्जु ... ♥♥♥

♥♥♥रज्जु ... ♥♥♥
मन की शुष्क परत पे घर्षण, पीड़ा की रज्जू करती है।
और उपर से मेरी शत्रुता, वेग में उसके बल भरती है।
नंगे पांवों पथ पर जाओ, तो उपचार रखो तुम स्वयं का,
ये दुनिया है, बुरे वक्त में, मदद किसी की कब करती है।

बस केवल भ्रमजाल है कोई, बस खुद का महिमामंडन है।
चलें झूठ की पगडंडी पर, और यहाँ सच का खंडन है।
हम आंखों के नीर से जिनके, जीवन को सुखमय करते हैं।
वही लोग देखो सपनों की, सस्ती कीमत तय करते हैं।

जरा जरा से लोभ पे देखो, मानवता भी अब मरती है।
मन की शुष्क परत पे घर्षण, पीड़ा की रज्जू करती है...

वाणी भी है मौन सरीखी, कंठ भी अब स्वर भूल रहा है।
मेरे हिस्से कंटक कंटक, उनके हिस्से फूल रहा है।
रण कौशल में शून्य हैं किन्तु, छदम से अपनी जय करते हैं।
निर्बल, निर्धन, असहायों के, जीवन पथ में भय करते हैं। 

दुरित काम से ऐसे जन की,  कहाँ आत्मा भी डरती है।
मन की शुष्क परत पे घर्षण, पीड़ा की रज्जू करती है। "

चेतन रामकिशन " देव "
06.08.2019
 

Tuesday, 25 June 2019

♥♥♥ज्वालामुखी... ♥♥♥

♥♥♥ज्वालामुखी... ♥♥♥
कुछ भी शेष नहीं है अब तो, नहीं कथन, न संयोजन को।
विस्मृत करना सीख रहा हूँ, मोह, हर्ष और प्रयोजन को।

विरह की ज्वालामुखी सरीखी, तपन को दिनकर दोहरी करता।
कोई मानुष नहीं था ऐसा, जो मन की उलझन को हरता।
अंबर के सब मेघदूत भी, शुष्क हो गए, रिक्त हो गए।
और हम अपने सपनों की ही, दोहनता में लिप्त हो गए।

पढ़ तो लेंगे शब्द सभी पर, कौन पढ़ेगा अंतर्मन को।
विस्मृत करना सीख रहा हूँ, मोह, हर्ष और प्रयोजन को।

नागफनी जैसे कंटक हैं चंहुओर, मन छिला हुआ है।
अब मानवता तंगहाल है, दुरित रसायन मिला हुआ है।
घृणा का विष फूल रहा अब, लुप्त प्रेम का लेप कर गए।
मैंने मांगीं थी कुछ खुशियां, वो पीड़ा की खेप भर गए।

" देव" सुनो अब क्या लिखूं मैं, इस मृत्यु जैसे जीवन को।
विस्मृत करना सीख रहा हूँ, मोह, हर्ष और प्रयोजन को। "

चेतन रामकिशन "देव "

दिनांक-२६.०६.२०१९ 

(सर्वाधिकार सुरक्षित, मेरी ये रचना मेरे ब्लॉग http://chetankavi.blogspot.in पर पूर्व प्रकाशित)





Monday, 3 June 2019

♥♥♥बैसाखियाँ... ♥♥♥

♥♥♥बैसाखियाँ... ♥♥♥
मन भी व्यथित है और आंखे नीर से भरी हैं।
भीतर से खोखला हूँ, शाखाएं बस हरी हैं।
कुछ कहने को नहीं है, साधा है मौन यूँ ही,
अपनों ने साथ छोड़ा, बैसाखियाँ धरी हैं।

अब प्रेम वाले दीपक, भी मंद हो चले हैं।
अब द्वार उनके घर के, भी बंद हो चले हैं।
अब झूठ की सुबह है, और रात भी और दिन भी,
सच्चाई के तपस्वी, भी चंद हो चले हैं।

जीवित है ' देव ' तन पर, अब आत्मा मरी हैं।
अपनों ने साथ छोड़ा, बैसाखियाँ धरी हैं।

ऊंचाई को छूने का, कैसा चला चलन है।
कोई बढ़े जो आगे, अपनों को ही जलन है।
पल भर कोऑंखें मीचें, और ढ़ेर हो दौलत का,
ऐसी ही सोच का अब, हर ओर प्रचलन है।

दिन में भी शोर गहरा, अब रात भी डरी हैं।
अपनों ने साथ छोड़ा, बैसाखियाँ धरी हैं। "

चेतन रामकिशन "देव "
दिनांक-०३.०६.२०१९ 

(सर्वाधिकार सुरक्षित, मेरी ये रचना मेरे ब्लॉग http://chetankavi.blogspot.in पर पूर्व प्रकाशित)



Sunday, 19 May 2019

♥पंछी चुप हैं... ♥

♥♥♥पंछी चुप हैं... ♥♥♥
पंछी चुप हैं, नदी किनारे सूने है।
तुझ बिन अम्बर, चाँद सितारे सूने हैं।

तू बिछड़ा तो मेहंदी भी मुंह मोड़ गई,
ये मलमल से हाथ, हमारे सूने हैं।

दौर है अब तो, मुंह की बोली से लिखना,
कलम, निशां  स्याही के सारे सूने  हैं।

माँ थी तो रौशन थी, मेरी अमावस तक,
माँ के बिन तो सब उजियारे सूने हैं।

"देव " तपिश आँखों में और गहरी लाली,
उल्फ़त गुम है और  गलियारे सूने हैं। "

चेतन रामकिशन "देव "
दिनांक-१९.०५.२०१९

(सर्वाधिकार सुरक्षित, मेरी ये रचना मेरे ब्लॉग http://chetankavi.blogspot.in पर पूर्व प्रकाशित)

Sunday, 5 May 2019

♥♥♥थोड़ी सी आग... ♥♥♥

♥♥♥थोड़ी सी आग... ♥♥♥
कुछ अनबुझे चराग हैं, थोड़ी सी आग है।
साँसों में भारीपन है, आँखों में जाग है।

बाहर से पोत लेते हैं, बेशक़ सफेदी लोग,
दिल पे, ज़मीर, रूह पे, काजल का दाग है।

पहले तो जात पूछी, फिर मारा गया उसे,
इंसानियत का आज फिर उजड़ा सुहाग है।

अम्बर सुलग रहा है, नदी स्याह पड़ रही,
चिमनी से उठता धुआं, रसायन का झाग है।

सच्चाई थम रही है 'देव', लब सिले गए,
जिस सिम्त भी देखो, वहीं झूठों का राग है। "

चेतन रामकिशन "देव "
दिनांक-०६.०५.२०१९ 

Saturday, 4 May 2019

♥♥....खेत पर ♥♥

♥♥♥....खेत पर ♥♥♥
जल गए एक ओर मेरे, पांव तपती रेत पर,
और वहां कृषक जुटा है, धूप  में भी खेत पर,

ग्राम के हर देवता को, कष्ट है, संघर्ष है,
हाँ मगर के पेट सबके, भरने का भी हर्ष है।
जेठ की तपती दुपहरी, शीत हो या पूस की,
झोपड़ी सा घर है उसका, और बिस्तर फूस की।

देह तो झुलसी तपन से, मन नहीं अश्वेत पर,
और वहां कृषक जुटा है, धूप में भी खेत पर,

देश में, सूबे में बेशक, कोई भी  सरकार हो।
हाथ खाली और वंचित का, उसे सरोकार हो।
"देव" वासी को महज, समझा न जाये सिर्फ मत,
सबके हित की योजना का, एक ही आधार हो।

मौन है पर, रुष्ट है वो, जान लो संकेत भर।
और वहां कृषक जुटा है, धूप  में भी खेत पर। "

चेतन रामकिशन "देव "
दिनांक-०४.०५.२०१९ 
(सर्वाधिकार सुरक्षित, मेरी ये रचना मेरे ब्लॉग http://chetankavi.blogspot.in पर पूर्व प्रकाशित)







Saturday, 27 April 2019

♥♥♥दो घड़ी प्यार... ♥♥♥♥

दो घड़ी प्यार...
रोज़ इनकार न किया करिये।
दो घड़ी प्यार भी किया करिये।

बिजलियाँ ही न गिराओ दिल पर,
थोड़ी बौछार भी किया करिये।

नाम कागज़ पे सिर्फ क्या लिखना,
सच में हक़दार भी किया करिये।

कैसी हो जीती हो सिर्फ अपने लिए ,
मेरा किरदार भी जिया करिये।

देखके हमको क्यों झुकाओ नज़र,
उनसे कुछ वार भी किया करिये।

अपनी जिद ही, नहीं हमेशा सही
थोड़ा मनुहार भी किया करिये।

" देव " मेरे बिना, न जी पाओ ,
सच को स्वीकार भी किया करिये।

चेतन रामकिशन "देव "

दिनांक-२७ -०४ -२०१९
(सर्वाधिकार सुरक्षित, मेरी ये रचना मेरे ब्लॉग http://chetankavi.blogspot.in पर पूर्व प्रकाशित)




Friday, 26 April 2019

♥♥खिड़कियां... ♥♥

♥♥♥♥♥खिड़कियां... ♥♥♥♥♥♥
सखी तेरे वापस आने की, सब उम्मीदें मंद हो गयीं।
जब तेरे घर का दरवाजा, सारी खिड़की बंद हो गयीं।
इतना निर्मोही होकर के, कैसे तूने फिर लिया मुंह,
हमसे पूछो, बिना तुम्हारे, साँसे भी पाबंद हो गयीं।

गुज़र रही है क्या क्या दिल पर, क्या बतलायें, क्या दिखलायें।
ये तो सच है प्यार है तुमसे, ग़म सहकर भी क्या झुठलायें।
लेकिन मैं स्तब्ध बहुत हूँ, कैसे मार्ग बदल जाते हैं।
मरते दम तक का वादा कर, बचकर लोग निकल जाते हैं।

कसमें टूटीं, वादे टूटे, झूठी सब सौगंध हो गयीं।
सखी तेरे वापस आने की, सब उम्मीदें मंद हो गयीं।

प्यार, वफ़ा के सारे किस्से और कहानी मौन हुयी हैं।
मेरी ऑंखें कल तक अपनीं, आज तुम्हीं को कौन हुयी हैं।
आज न जाने क्यों तुम अपनी, परछाईं से भाग रही हो।
कुछ नामी लोगों की खातिर, दिल के रिश्ते त्याग रही हो।

दुनिया में झूठी बातें भी, मानों अब गुलकंद हो गयीं। 
सखी तेरे वापस आने की, सब उम्मीदें मंद हो गयीं।

चेतन रामकिशन "देव "
दिनांक-२६ -०४ -२०१९ 

Wednesday, 10 April 2019

♥हल... ♥

♥♥♥♥♥हल... ♥♥♥♥♥♥
अनवरत संघर्ष का परिणाम फिर निष्फल हुआ है।
थे उचित प्रयास किन्तु , आज फिर से छल हुआ है।
इन विषमता के क्षणों में, भय रखूं क्या हारने का,
कौनसा अश्रु बहाकर , उलझनों का हल हुआ है।

पथ में कंटक, पग में छाले, किन्तु फिर भी चल रहा हूँ,
घोर से काले तिमिर में, दीप बनकर जल रहा हूँ।

थाम ले जो आज को, उसका ही एक दिन कल हुआ है। 
कौनसा अश्रु बहाकर , उलझनों का हल हुआ है।

गीत की लय भी रुंधी है, और नमी है पंक्तियों में।
प्रेम की, अपनत्व की, भाषा कहाँ है व्यक्तियों में।
"देव " आगे देखते हैं, आग चख़कर देख लेंगे,
आज तो सलंग्न हैं बस, शाब्दिक अभिव्यक्तियों में।

अब नहीं कोई निवेदन, अपने अधरों से करूँगा।
अपने मन के घाव भी अब, औषधि के बिन भरूंगा।

मिथ्या की उपमा से पत्थर, कब भला मलमल हुआ है।
कौनसा अश्रु बहाकर , उलझनों का हल हुआ है। "

चेतन रामकिशन "देव "
दिनांक-१०-०४ -२०१९


Monday, 21 January 2019

♥♥♥♥♥अपने औचित्य... ♥♥♥♥♥♥


♥♥♥♥♥अपने औचित्य... ♥♥♥♥♥♥
नहीं दिया संवाद का अवसर, तुम संवेदनहीन हो गए।
 केवल अपने औचित्यों में, तुम कितने तल्लीन हो गए।
प्रेम शब्द के अर्थ को तुमने,  कटुता से खंडित कर डाला,
और हम थे के मानो तुम बिन, जैसे जल बिन मीन हो गए।

नेह विषय है अनुभूति का, भाव नहीं मैं थोप रहा  हूँ। 
किन्तु मैत्री पक्ष दिखाकर, नहीं वाण भी घोंप  रहा हूँ।

वृद्धि में हैं झूठ के कंटक,  चंहुओर आसीन हो गए।
और हम थे के मानो तुम बिन, जैसे जल बिन मीन हो गए....

हूँ कितना स्तब्ध मैं देखो, लिख नहीं सकता, कह नहीं सकता।
किन्तु प्रेम की कोमलता पे, निर्मंमता मैं सह नहीं सकता।
भावनाओं के नाम पे छल कर, स्वयं का हित तो न्याय नहीं है,
मेरा मन रेशम सा है मैं, पत्थर बनके रह नहीं सकता।

मुझे पता है फुलवारी को, हर कोई पाला नहीं करता।
शुष्क नहर में, जल की बूंदें, हर कोई डाला नहीं करता।

"देव" हमारे सपने थककर, चिरनिंद्रा में लीन हो गए।
और हम थे के मानो तुम बिन, जैसे जल बिन मीन हो गए। "

चेतन रामकिशन "देव "
दिनांक-२१-०१-२०१९
(सर्वाधिकार सुरक्षित, रचना मेरे ब्लॉग पर पूर्व प्रकशित। "