Monday, 3 June 2019

♥♥♥बैसाखियाँ... ♥♥♥

♥♥♥बैसाखियाँ... ♥♥♥
मन भी व्यथित है और आंखे नीर से भरी हैं।
भीतर से खोखला हूँ, शाखाएं बस हरी हैं।
कुछ कहने को नहीं है, साधा है मौन यूँ ही,
अपनों ने साथ छोड़ा, बैसाखियाँ धरी हैं।

अब प्रेम वाले दीपक, भी मंद हो चले हैं।
अब द्वार उनके घर के, भी बंद हो चले हैं।
अब झूठ की सुबह है, और रात भी और दिन भी,
सच्चाई के तपस्वी, भी चंद हो चले हैं।

जीवित है ' देव ' तन पर, अब आत्मा मरी हैं।
अपनों ने साथ छोड़ा, बैसाखियाँ धरी हैं।

ऊंचाई को छूने का, कैसा चला चलन है।
कोई बढ़े जो आगे, अपनों को ही जलन है।
पल भर कोऑंखें मीचें, और ढ़ेर हो दौलत का,
ऐसी ही सोच का अब, हर ओर प्रचलन है।

दिन में भी शोर गहरा, अब रात भी डरी हैं।
अपनों ने साथ छोड़ा, बैसाखियाँ धरी हैं। "

चेतन रामकिशन "देव "
दिनांक-०३.०६.२०१९ 

(सर्वाधिकार सुरक्षित, मेरी ये रचना मेरे ब्लॉग http://chetankavi.blogspot.in पर पूर्व प्रकाशित)



Sunday, 19 May 2019

♥पंछी चुप हैं... ♥

♥♥♥पंछी चुप हैं... ♥♥♥
पंछी चुप हैं, नदी किनारे सूने है।
तुझ बिन अम्बर, चाँद सितारे सूने हैं।

तू बिछड़ा तो मेहंदी भी मुंह मोड़ गई,
ये मलमल से हाथ, हमारे सूने हैं।

दौर है अब तो, मुंह की बोली से लिखना,
कलम, निशां  स्याही के सारे सूने  हैं।

माँ थी तो रौशन थी, मेरी अमावस तक,
माँ के बिन तो सब उजियारे सूने हैं।

"देव " तपिश आँखों में और गहरी लाली,
उल्फ़त गुम है और  गलियारे सूने हैं। "

चेतन रामकिशन "देव "
दिनांक-१९.०५.२०१९

(सर्वाधिकार सुरक्षित, मेरी ये रचना मेरे ब्लॉग http://chetankavi.blogspot.in पर पूर्व प्रकाशित)

Sunday, 5 May 2019

♥♥♥थोड़ी सी आग... ♥♥♥

♥♥♥थोड़ी सी आग... ♥♥♥
कुछ अनबुझे चराग हैं, थोड़ी सी आग है।
साँसों में भारीपन है, आँखों में जाग है।

बाहर से पोत लेते हैं, बेशक़ सफेदी लोग,
दिल पे, ज़मीर, रूह पे, काजल का दाग है।

पहले तो जात पूछी, फिर मारा गया उसे,
इंसानियत का आज फिर उजड़ा सुहाग है।

अम्बर सुलग रहा है, नदी स्याह पड़ रही,
चिमनी से उठता धुआं, रसायन का झाग है।

सच्चाई थम रही है 'देव', लब सिले गए,
जिस सिम्त भी देखो, वहीं झूठों का राग है। "

चेतन रामकिशन "देव "
दिनांक-०६.०५.२०१९ 

Saturday, 4 May 2019

♥♥....खेत पर ♥♥

♥♥♥....खेत पर ♥♥♥
जल गए एक ओर मेरे, पांव तपती रेत पर,
और वहां कृषक जुटा है, धूप  में भी खेत पर,

ग्राम के हर देवता को, कष्ट है, संघर्ष है,
हाँ मगर के पेट सबके, भरने का भी हर्ष है।
जेठ की तपती दुपहरी, शीत हो या पूस की,
झोपड़ी सा घर है उसका, और बिस्तर फूस की।

देह तो झुलसी तपन से, मन नहीं अश्वेत पर,
और वहां कृषक जुटा है, धूप में भी खेत पर,

देश में, सूबे में बेशक, कोई भी  सरकार हो।
हाथ खाली और वंचित का, उसे सरोकार हो।
"देव" वासी को महज, समझा न जाये सिर्फ मत,
सबके हित की योजना का, एक ही आधार हो।

मौन है पर, रुष्ट है वो, जान लो संकेत भर।
और वहां कृषक जुटा है, धूप  में भी खेत पर। "

चेतन रामकिशन "देव "
दिनांक-०४.०५.२०१९ 
(सर्वाधिकार सुरक्षित, मेरी ये रचना मेरे ब्लॉग http://chetankavi.blogspot.in पर पूर्व प्रकाशित)







Saturday, 27 April 2019

♥♥♥दो घड़ी प्यार... ♥♥♥♥

दो घड़ी प्यार...
रोज़ इनकार न किया करिये।
दो घड़ी प्यार भी किया करिये।

बिजलियाँ ही न गिराओ दिल पर,
थोड़ी बौछार भी किया करिये।

नाम कागज़ पे सिर्फ क्या लिखना,
सच में हक़दार भी किया करिये।

कैसी हो जीती हो सिर्फ अपने लिए ,
मेरा किरदार भी जिया करिये।

देखके हमको क्यों झुकाओ नज़र,
उनसे कुछ वार भी किया करिये।

अपनी जिद ही, नहीं हमेशा सही
थोड़ा मनुहार भी किया करिये।

" देव " मेरे बिना, न जी पाओ ,
सच को स्वीकार भी किया करिये।

चेतन रामकिशन "देव "

दिनांक-२७ -०४ -२०१९
(सर्वाधिकार सुरक्षित, मेरी ये रचना मेरे ब्लॉग http://chetankavi.blogspot.in पर पूर्व प्रकाशित)




Friday, 26 April 2019

♥♥खिड़कियां... ♥♥

♥♥♥♥♥खिड़कियां... ♥♥♥♥♥♥
सखी तेरे वापस आने की, सब उम्मीदें मंद हो गयीं।
जब तेरे घर का दरवाजा, सारी खिड़की बंद हो गयीं।
इतना निर्मोही होकर के, कैसे तूने फिर लिया मुंह,
हमसे पूछो, बिना तुम्हारे, साँसे भी पाबंद हो गयीं।

गुज़र रही है क्या क्या दिल पर, क्या बतलायें, क्या दिखलायें।
ये तो सच है प्यार है तुमसे, ग़म सहकर भी क्या झुठलायें।
लेकिन मैं स्तब्ध बहुत हूँ, कैसे मार्ग बदल जाते हैं।
मरते दम तक का वादा कर, बचकर लोग निकल जाते हैं।

कसमें टूटीं, वादे टूटे, झूठी सब सौगंध हो गयीं।
सखी तेरे वापस आने की, सब उम्मीदें मंद हो गयीं।

प्यार, वफ़ा के सारे किस्से और कहानी मौन हुयी हैं।
मेरी ऑंखें कल तक अपनीं, आज तुम्हीं को कौन हुयी हैं।
आज न जाने क्यों तुम अपनी, परछाईं से भाग रही हो।
कुछ नामी लोगों की खातिर, दिल के रिश्ते त्याग रही हो।

दुनिया में झूठी बातें भी, मानों अब गुलकंद हो गयीं। 
सखी तेरे वापस आने की, सब उम्मीदें मंद हो गयीं।

चेतन रामकिशन "देव "
दिनांक-२६ -०४ -२०१९ 

Wednesday, 10 April 2019

♥हल... ♥

♥♥♥♥♥हल... ♥♥♥♥♥♥
अनवरत संघर्ष का परिणाम फिर निष्फल हुआ है।
थे उचित प्रयास किन्तु , आज फिर से छल हुआ है।
इन विषमता के क्षणों में, भय रखूं क्या हारने का,
कौनसा अश्रु बहाकर , उलझनों का हल हुआ है।

पथ में कंटक, पग में छाले, किन्तु फिर भी चल रहा हूँ,
घोर से काले तिमिर में, दीप बनकर जल रहा हूँ।

थाम ले जो आज को, उसका ही एक दिन कल हुआ है। 
कौनसा अश्रु बहाकर , उलझनों का हल हुआ है।

गीत की लय भी रुंधी है, और नमी है पंक्तियों में।
प्रेम की, अपनत्व की, भाषा कहाँ है व्यक्तियों में।
"देव " आगे देखते हैं, आग चख़कर देख लेंगे,
आज तो सलंग्न हैं बस, शाब्दिक अभिव्यक्तियों में।

अब नहीं कोई निवेदन, अपने अधरों से करूँगा।
अपने मन के घाव भी अब, औषधि के बिन भरूंगा।

मिथ्या की उपमा से पत्थर, कब भला मलमल हुआ है।
कौनसा अश्रु बहाकर , उलझनों का हल हुआ है। "

चेतन रामकिशन "देव "
दिनांक-१०-०४ -२०१९


Monday, 21 January 2019

♥♥♥♥♥अपने औचित्य... ♥♥♥♥♥♥


♥♥♥♥♥अपने औचित्य... ♥♥♥♥♥♥
नहीं दिया संवाद का अवसर, तुम संवेदनहीन हो गए।
 केवल अपने औचित्यों में, तुम कितने तल्लीन हो गए।
प्रेम शब्द के अर्थ को तुमने,  कटुता से खंडित कर डाला,
और हम थे के मानो तुम बिन, जैसे जल बिन मीन हो गए।

नेह विषय है अनुभूति का, भाव नहीं मैं थोप रहा  हूँ। 
किन्तु मैत्री पक्ष दिखाकर, नहीं वाण भी घोंप  रहा हूँ।

वृद्धि में हैं झूठ के कंटक,  चंहुओर आसीन हो गए।
और हम थे के मानो तुम बिन, जैसे जल बिन मीन हो गए....

हूँ कितना स्तब्ध मैं देखो, लिख नहीं सकता, कह नहीं सकता।
किन्तु प्रेम की कोमलता पे, निर्मंमता मैं सह नहीं सकता।
भावनाओं के नाम पे छल कर, स्वयं का हित तो न्याय नहीं है,
मेरा मन रेशम सा है मैं, पत्थर बनके रह नहीं सकता।

मुझे पता है फुलवारी को, हर कोई पाला नहीं करता।
शुष्क नहर में, जल की बूंदें, हर कोई डाला नहीं करता।

"देव" हमारे सपने थककर, चिरनिंद्रा में लीन हो गए।
और हम थे के मानो तुम बिन, जैसे जल बिन मीन हो गए। "

चेतन रामकिशन "देव "
दिनांक-२१-०१-२०१९
(सर्वाधिकार सुरक्षित, रचना मेरे ब्लॉग पर पूर्व प्रकशित। "





Tuesday, 18 December 2018

♥चुप जाना बाकी था... ♥

♥♥♥♥♥चुप जाना बाकी था... ♥♥♥♥♥♥
क्या कुछ बचा रहा कहने को, क्या कुछ बतलाना बाकी था।  
सब कुछ तुमने भुला ही डाला, फिर क्या झुठलाना बाकी था। 

मेरे आंसू, और मायूसी, रुँधा गला और बिखरे सपने,
बतलाओ अब कौनसा चेहरा, हमको दिखलाना बाकी था।

वो सौदेबाज़ी में माहिर, ख्वाहिश है के जहां ख़रीदे,
पर हम सी सच्ची रूहों का, सौदा कर पाना बाकी था। 

कितनी मिन्नत करते आखिर, रुकना तो था कहीं पे आकर,
आगे बढ़ते तो नज़रों से, खुद की गिर जाना बाकी था। 

"देव " तुम्हारी शर्त भी कैसी, वफ़ा, प्यार और यकीं से ऊपर,
ऐसे में कहने से बेहतर, हमको चुप जाना बाकी था।  "

चेतन रामकिशन "देव"
१८.१२.२०१८
(मेरी ये रचना, मेरे ब्लॉग पर पूर्व प्रकाशित ) "








  

Saturday, 3 November 2018

♥प्रतीक्षा( गहरी व्याकुलता...) ♥


♥♥♥♥♥प्रतीक्षा( गहरी व्याकुलता...) ♥♥♥♥♥♥

प्रतीक्षा, गहरी व्याकुलता, रिक्त धैर्य का कोष हुआ है।
बिना भेंट के सखी हमारे मन में गहरा रोष हुआ है।
मुझको दर्शन की अभिलाषा थी, तुमसे साक्षात रूप में,
छवि तुम्हारी देख देख कर, कतिपय न संतोष हुआ है।

हो जाते हैं धवल वो क्षण जब, सखी परस्पर हम मिलते हैं।
जीवन पथ पर रंग बिरंगे, फूलों के उपवन खिलते हैं।

वचन बांधकर भी न आना, बोलो किसका दोष हुआ है।
प्रतीक्षा, गहरी व्याकुलता, रिक्त धैर्य का कोष हुआ है....

सर्वविदित है प्रेम में देखो, मिलन के अवसर कम होते हैं।
क्यूंकि घर के हर क्षण पहरे, कहाँ दुर्ग से कम होते हैं।
"देव " कहो अवसर खोने से, कोमल मन को क्यों न दुःख हो,
एक बार जो चले गए क्षण, पुन कहाँ उदगम होते हैं।

सखी सुनो मैं रुष्ट हूँ तुमने, क्यूंकि असंतोष हुआ है।
प्रतीक्षा, गहरी व्याकुलता, रिक्त धैर्य का कोष हुआ है। "


चेतन रामकिशन 'देव '

दिनांक- ०३.११.२०१८

(सर्वाधिक सुरक्षित, मेरे द्वारा लिखित ये रचना मेरे ब्लॉग पर पूर्व प्रकाशित )



Monday, 30 July 2018

♥♥♥♥♥तुम संग...♥♥♥♥♥♥

 ♥♥♥♥♥तुम संग...♥♥♥♥♥♥

सावन की वर्षा में तुम संग, शीतल बूंदों का लेपन हो। 
नभ अम्बर के पृष्ठ भाग पर, सात वर्ण का विक्षेपन हो। 
हरयाली का हरा आवरण, और फूलों का हो अभिनन्दन,
तुम बन जाओ छवि तुम्हारी, मेरा मुख तेरा दर्पन हो। 

मिलन, भेंट और सखी निकटता, तुम ऊर्जा का संचारण हो।  
प्रेम है तुममें सुनो धरा सा, तुम भावों का भण्डारण हो। 

तुम्हीं मेरे रंग रूप की धवला, और तुम ही मेरा यौवन हो। 
सावन की वर्षा में तुम संग, शीतल बूंदों का लेपन हो। 

मिलन हुआ दो आत्माओं का, दोनों का मन एक हो गया। 
द्वेष, क्षोभ न रहा किसी से, हृदय धवल और नेक हो गया। 
मधुर तरंगे फूट रहीं हैं, सावन की इन मल्हारों में,
इस अमृत वर्षा में अपनी, निष्ठा का अभिषेक हो गया। 

सखी मिलन के अनुपम क्षण हैं, देखो सार नहीं कम करना। 
है हमपे दायित्व प्रेम का, उसका भार नहीं काम करना। 

तुम सौंदर्य मेरी कविता का, और तुम मेरा सम्बोधन हो। 
सावन की वर्षा में तुम संग, शीतल बूंदों का लेपन हो। 

अभिलाषा, मन की जिज्ञासा, भाषा और विश्वास लिखा है।  
सखी तुम्ही को मैंने धरती और अपना आकाश लिखा है। 
तुम्हीं "देव " की श्रद्धा में हो, और तुम्हीं जगमग ज्योति में,
तुम्हें तिमिर को हरने वाला, चंदा का प्रकाश लिखा है। 

नहीं रिक्त हो कोष प्रेम का, सबसे ये अनुरोध करेंगे। 
नेह के पथ पर चलने वाले, न हिंसा अवरोध करेंगे। 

तुम ही मेरी दृढ़ता में हो, और तुम मेरा संवेदन हो।  
सावन की वर्षा में तुम संग, शीतल बूंदों का लेपन हो। "


"
प्रेम, एक ऐसा शब्द, जो विभिन्न सार्थक अर्थों में, हमारे और अपनों में मध्य प्राण तत्वों की तरह प्रवाहित होता रहता है, वह कभी प्रेयसी, कभी परिजनों, कभी सखा किसी भी रूप में अलंकृत होता है, तो आइये प्रेम करें।

चेतन रामकिशन 'देव '
दिनांक- ३०.०७.२०१८ 
(सर्वाधिक सुरक्षित, मेरे द्वारा लिखित ये रचना मेरे ब्लॉग पर पूर्व प्रकाशित )

Friday, 22 June 2018

♥♥♥♥♥झूठ...♥♥♥♥♥♥

♥♥♥♥♥झूठ...♥♥♥♥♥♥

फिर से लिबास अपना बदलने लगा है सच।
अब झूठ की तपिश में जलने लगा है सच।

रिश्ते भी शर्मसार हैं, नाते भी रो रहे,
चौखट पे अदालत की बिलखने लगा है सच।

मज़हब है, जांत पांत पर इंसानियत नहीं,
तेज़ाब में नफरत की, पिघलने लगा है सच।

कसमें वो सात जन्म की, खायीं थीं रात को,
सुबह को मगर खुद से, मुकरने लगा है सच।

वो झूठ बोलकर के भी, किरदार बन गए,
तन्हा ही खुद के हाथ पर, मलने लगा सच।

अच्छाई के दामन पे लगे, स्याह के धब्बे,
काजल की कोठरी में, पलने लगा है सच।

कोशिश करो के "देव", सच को ज़िन्दगी मिले,
झूठों के हाथ हर घड़ी, छलने लगा है सच। "


चेतन रामकिशन " देव"
२२.०६.२०१८
(सर्वाधिकार सुरक्षित, मेरी यह रचना मेरे ब्लॉग http://chetankavi.blogspot.com पर पूर्व प्रकाशित। )

Saturday, 12 May 2018

♥सीलन...

सीलन...
आवश्यक है, स्वयं ही अपने घावों की परतों को सिलना।
बहुत कठिन है इस दुनिया में, अपने जैसा कोई मिलना।

नयनों की सीलन और लाली, आह को कोई कब सुनता है।
किसी और के पथ के कंटक, कोई व्यक्ति कब चुनता है।
बस स्वयं की ही अभिलाषा को, पूरा करने की मंशाएं,
किसी और के खंडित सपने, कोई अंतत: कब बुनता है।

करता है भयभीत बहुत ही, अपने सपनों की जड़ हिलना।
आवश्यक है, स्वयं ही अपने घावों की परतों को सिलना...

छिटक रहीं हों जब आशाएं, और ऊपर से विमुख स्वजन का।
जलधारा सा बदल लिया है, उसने रुख अपने जीवन का।
"देव " वो जिनकी प्रतीक्षा में, दिवस, माह और वर्ष गुजारे,
वो क्या समझें मेरी पीड़ा, उनको सुख अपने तन मन का।

पीड़ाओं की चट्टानों पर, मुश्किल है फूलों का खिलना।
बहुत कठिन है इस दुनिया में, अपने जैसा कोई मिलना। "


चेतन रामकिशन " देव"
१२.०५.२०१८


(सर्वाधिकार सुरक्षित, मेरी यह रचना मेरे ब्लॉग http://chetankavi.blogspot.com पर पूर्व प्रकाशित। )