Tuesday 14 June 2011

♥♥हवस( दर्द की इन्तहा) ♥♥

♥♥♥♥♥♥♥♥ ♥♥हवस( दर्द की इन्तहा) ♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥
"रक्त की बूंद से रच डाली है, उसके जीवन की संरचना!
ऐसा जीवन दिया है उसको, जैसे जीते जी हो मरना!
चीख घुली है हवा कणों में,और आंख की पलक में आंसू,
आज सभी मुख्प्रस्ठों पर जो, छपी हवस की निर्मम घटना!

अपने छनिक स्वार्थ की धुन में, मानवता को मार दिया है!
इन लोगों ने एक नारी की, इज्ज़त को यूँ तार किया है!

उसके जीवन का पथ दुष्कर, जीवन में उल्लास नहीं है!
सपने बुनना छोड़ चुकी वो, हर्षमयी आभास नहीं है!

इसी तरह से इस नारी को, ये जाने कब तक कुचलेंगे!
मानवता की छवि कलंकित, कब तक ये आंसू बिखरेंगे............

कानूनों का भय भी टूटा, न्याय दर्शिता दर्पण टूटा!
कोई सुबूतों में बच जाता, कोई गवाह के चुप से छूटा!
कोई नारी ऐसा सहकर, जान भी अपनी दे देती है,
कोई जीवन ऐसे जीती, कहीं दुखों का सागर फूटा!

अपने इस लाभार्थ की धुन में, मानवता को मार दिया है!
इन लोगों ने एक नारी की, इज्ज़त को यूँ तार किया है!

ढला ढला रहता है दिनकर, जीवन में प्रकाश नहीं है!
सपने बुनना छोड़ चुकी वो, हर्षमयी आभास नहीं है!

इसी तरह से इन पुष्पों को, ये जाने कब तक मसलेंगे!
मानवता की छवि कलंकित, कब तक ये आंसू बिखरेंगे............

मंचों से नेता देते हैं, नारी मुक्ति का संबोधन!
किन्तु पट के पीछे वो भी, इसी नार का करते शोषण!
"देव" तुम्हे अब जगना होगा, तभी चित्र में रंग सजेगा,
शत्रु पीछे हट जायेंगे, रण भेरी का सुन उधबोदन!


अपने छनिक स्वार्थ की धुन में, मानवता को मार दिया है!
इन लोगों ने एक नारी की, इज्ज़त को यूँ तार किया है!

मधु नहीं लेता अब मधुकर, पुष्पों में अधिवास नहीं है!
सपने बुनना छोड़ चुकी वो, हर्षमयी आभास नहीं है!

पाषाणों के ह्रदय जैसे, ये पत्थर कब तक पिघलेंगे!
मानवता की छवि कलंकित, कब तक ये आंसू बिखरेंगे!"


"जिस नारी के साथ ये घटना होती है, उसका जीवन पीड़ा का दर्पण हो जाता है! क्यूंकि इस पुरुष प्रधान समाज में, ये रक्तरंजित उत्पीड़न सहकर भी सर झुका के उसे ही चलना पड़ता है और इस कृत्य के निर्माता मस्तक ऊँचा करके घूमते हैं! - चेतन रामकिशन (देव)"

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