♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥ भक्ति या अंधापन ♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥
"ना करते मां-बाप की सेवा, पाषाणों का वंदन करते!
स्वयं रहेंगे छांव में लेकिन, उनके तन को नंगा रखते!
नहीं करेंगे हाथ से मेहनत, पत्थर के बुत पर सब छोडें,
मानव होकर रहें पशु से, यहाँ वहां बस चलते फिरते!
अपनी मेहनत त्याग के देखो, कर्महीन जो हो जाते हैं!
ऐसे लोग कहाँ इस जग में, कहाँ भला कुछ कर पाते हैं!
ये भक्ति है या अंधापन, मैं तो किंचित समझ ना पाया!
जिसके मन में विष होता है, उसी ने चन्दन तिलक लगाया............
गली गली हर चोराहे पर, अब धर्मों की खुली दुकानें!
जिनको ग्रन्थ का नाम ना मालूम, वही लगे उपदेश सुनाने!
खुद को पंडित कहते हैं वो हैं, जिनकी सोच है सदा कलुषित,
लोगों को वो लूट रहें हैं, उनके ही घर भरे खजाने!
मात-पिता के चरण छोड़कर, पत्थर को जो अपनाते हैं!
ऐसे लोग कहाँ इस जग में, कहाँ भला कुछ कर पाते हैं!
ये युक्ति है, या है बंधन मैं तो किंचित समझ ना पाया!
जिसके मन में विष होता है, उसी ने चन्दन तिलक लगाया............
इसी धर्म की आड़ वो लेकर, नारी अस्मत विक्रय करते!
लोगों को वो मूर्ख बनाकर, खुद को ईश्वर घोषित करते!
अब तो साधू संतो को भी, हुई जरुरत है दौलत की,
यही लोग तो इन लोगों को, अंधेपन से ग्रसित करते!
बुद्धिमत्ता "देव" छोड़के, स्वामी उनको बतलाते हैं!
ऐसे लोग कहाँ इस जग में, कहाँ भला कुछ कर पाते हैं!
ये मुक्ति है या उलझन, मैं तो किंचित समझ ना पाया!
जिसके मन में विष होता है, उसी ने चन्दन तिलक लगाया!"
"भक्ति, अंधापन नहीं है! भक्ति कर्तव्यों में भी शामिल है! तो आओ चिन्तन करें! - चेतन रामकिशन(देव)"
"ना करते मां-बाप की सेवा, पाषाणों का वंदन करते!
स्वयं रहेंगे छांव में लेकिन, उनके तन को नंगा रखते!
नहीं करेंगे हाथ से मेहनत, पत्थर के बुत पर सब छोडें,
मानव होकर रहें पशु से, यहाँ वहां बस चलते फिरते!
अपनी मेहनत त्याग के देखो, कर्महीन जो हो जाते हैं!
ऐसे लोग कहाँ इस जग में, कहाँ भला कुछ कर पाते हैं!
ये भक्ति है या अंधापन, मैं तो किंचित समझ ना पाया!
जिसके मन में विष होता है, उसी ने चन्दन तिलक लगाया............
गली गली हर चोराहे पर, अब धर्मों की खुली दुकानें!
जिनको ग्रन्थ का नाम ना मालूम, वही लगे उपदेश सुनाने!
खुद को पंडित कहते हैं वो हैं, जिनकी सोच है सदा कलुषित,
लोगों को वो लूट रहें हैं, उनके ही घर भरे खजाने!
मात-पिता के चरण छोड़कर, पत्थर को जो अपनाते हैं!
ऐसे लोग कहाँ इस जग में, कहाँ भला कुछ कर पाते हैं!
ये युक्ति है, या है बंधन मैं तो किंचित समझ ना पाया!
जिसके मन में विष होता है, उसी ने चन्दन तिलक लगाया............
इसी धर्म की आड़ वो लेकर, नारी अस्मत विक्रय करते!
लोगों को वो मूर्ख बनाकर, खुद को ईश्वर घोषित करते!
अब तो साधू संतो को भी, हुई जरुरत है दौलत की,
यही लोग तो इन लोगों को, अंधेपन से ग्रसित करते!
बुद्धिमत्ता "देव" छोड़के, स्वामी उनको बतलाते हैं!
ऐसे लोग कहाँ इस जग में, कहाँ भला कुछ कर पाते हैं!
ये मुक्ति है या उलझन, मैं तो किंचित समझ ना पाया!
जिसके मन में विष होता है, उसी ने चन्दन तिलक लगाया!"
"भक्ति, अंधापन नहीं है! भक्ति कर्तव्यों में भी शामिल है! तो आओ चिन्तन करें! - चेतन रामकिशन(देव)"
1 comment:
सच्ची और बहुत बहुत अच्छी रचना - बधाई और पढवाने के लिए आभार
"ये भक्ति है या अंधापन, मैं तो किंचित समझ ना पाया!
जिसके मन में विष होता है, उसी ने चन्दन तिलक लगाया"
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