Tuesday, 31 March 2015

♥बंदनवार...♥


♥♥♥♥♥♥♥♥♥बंदनवार...♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥
बंदनवार सजाया मैंने, घी का दीप जलाया मैंने।
नहीं लौटकर पर तुम आये, कितना तुम्हें बुलाया मैंने। 
तुमको अपनी व्याकुलता के, कितने पत्र लिखे प्रतिदिन,
तुम बिन ये नीरस जीवन है, हर क्षण ये बतलाया मैंने। 

किन्तु तुमने मेरे मन की, आशाओं को तोड़ दिया क्यों। 
एकाकी जीवन के पथ पर, मुझको जीवित छोड़ दिया क्यों।  
तुमसे बस थोड़ी अनुभूति, थोड़ा सा अपनत्व ही चाहा,
किन्तु तुमने इसके बदले, दुख से नाता जोड़ दिया क्यों। 

तुम नहीं समझे मेरी वेदना, कितना तो समझाया मैंने। 
तुम बिन ये नीरस जीवन है, हर क्षण ये बतलाया मैंने ... 

रिक्त है तुम बिन जीवन का वृत, त्रिज्या दुख की बड़ी हुयी है। 
शब्दों से विस्तार करूँ क्या, तुम बिन मुश्किल खड़ी हुयी है। 
"देव" तुम्हारी प्रतीक्षा में, दिवस रात पथरायीं ऑंखें,
लगता है कि भाग्य में तुम बिन, घनी वेदना जड़ी हुयी है ... 

अब तुम समझो या न समझो, रिक्त हृदय दिखलाया मैंने। 
तुम बिन ये नीरस जीवन है, हर क्षण ये बतलाया मैंने। "

.....................चेतन रामकिशन "देव"….................
दिनांक-३१.०३.२०१५ 

Wednesday, 25 March 2015

♥♥धूप....♥♥



♥♥♥♥♥♥धूप....♥♥♥♥♥♥♥♥
मेरे चित्र सजा दो फिर से। 
खोयी रौनक ला दो फिर से।  
अँधेरे को काबू में कर,
धूप नयी फैला दो फिर से। 

तुमसे ही उम्मीद है बाकि,
इसीलिए तुमसे कहता हूँ। 
तुम बिन चित्त नहीं हर्षाता,
मुरझाया सा मैं रहता हूँ। 

कंठ तुम्हारे बिन चुप चुप है,
प्रेम की सरगम ला दो फिर से। 
अँधेरे को काबू में कर,
धूप नयी फैला दो फिर से.... 

रेखाचित्र तुम्हे सौंपा है,
अपना इसको तुम रंग देना। 
खुशियों में तो साथ सभी दें,
दुख में भी अपना संग देना। 

"देव" प्रेम के ढ़ाई अक्षर,
कानों में बतला दो फिर से। 
अँधेरे को काबू में कर,
धूप नयी फैला दो फिर से। "

......चेतन रामकिशन "देव"…… 
दिनांक-२६.०३.२०१५


Monday, 23 March 2015

♥♥शब्दाक्षर...♥♥


♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥शब्दाक्षर...♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥
सृजक हूँ, सृजन चाहता हूँ, भावों का जीवन चाहता हूँ। 
मेरे मन को भी पढ़ ले जो, ऐसा कोई मन चाहता हूँ। 
अक्षर से अक्षर का नाता, जोड़ सकूँ बस ये ख्वाहिश है,
न सोने के मुकुट की इच्छा, न चांदी का तन चाहता हूँ। 

नहीं पता क्यों प्यार है मुझको, अपने शब्दों से, अक्षर से। 
नहीं पता क्यों प्यार है मुझको, भावों के बहते सागर से। 
नहीं पता मैं क्यों शब्दों को, अपना हर एक राज बताता,
नहीं पता क्यों प्यार है मुझको, शब्दों के नीले अम्बर से। 

शब्दों को जो ममता दे वो, एक ऐसा आँगन चाहता हूँ। 
न सोने के मुकुट की इच्छा, न चांदी का तन चाहता हूँ....

प्रेम कठिन है, पीड़ा पायी, दवा नही कुछ दुआ चाहिये। 
खुलकर के जो सांस ले सकूँ, ऐसी मुझको हवा चाहिये।  
"देव" मेरे दहके मन को जो, अपने आँचल की छाया दे,
जीवन के इस पथ पर मुझको, बस इतनी सी वफ़ा चाहिये।  

व्याकुल मन को शांत कर सके, एक लुम्बिनी वन चाहता हूँ। 
न सोने के मुकुट की इच्छा, न चांदी का तन चाहता हूँ। "

......................चेतन रामकिशन "देव"........................
दिनांक-२४.०३.२०१५

Wednesday, 18 March 2015

♥♥♥सिंदूरी...♥♥♥


♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥सिंदूरी...♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥
काव्य कोष में बड़ी रिक्तता, तुम आ जाओ तो पूरी हो। 
तुम्हें देखकर नयना हर्षित, मांग हमारी सिंदूरी हो। 
भाषा शैली भव्य तुम्हारी, रात दिवस तुमसे बतिआऊं,
बहुत सुगन्धित प्रेम तुम्हारा, जैसे कोई कस्तूरी हो। 

है मेरे में बहुत बचपना, मुझसे क्रोधित हुआ करो न। 
मेरा मन स्पर्श को तरसे, तुम आकर के छूआ करो न। 

साथ रहो तुम मेरे हर क्षण, नहीं तनिक सी भी दूरी हो। 
काव्य कोष में बड़ी रिक्तता, तुम आ जाओ तो पूरी हो ....

स्वप्नों का हम गठन करेंगे, साथ साथ प्रयास करेंगे। 
दुःख आएगा तो झेलेंगे, हंसने का अभ्यास करेंगे। 
"देव" परस्पर मन की उलझन, सुलझांयेंगे हम मिल जुल कर,
एक दूजे के जीवन पथ पर, आपस में विश्वास करेंगे। 

दीपक जैसे राह दिखाना, यदि तिमिर में घिर जाऊं मैं। 
मेरा प्रेम नहीं स्वयंभू,  जो कसमों से फिर जाऊं मैं। 

टूट गयी हूँ बिना तुम्हारे, नहीं कभी फिर से दूरी हो। 
काव्य कोष में बड़ी रिक्तता, तुम आ जाओ तो पूरी हो। "

.................चेतन रामकिशन "देव"......................
दिनांक-१८.०३.२०१५

Sunday, 15 March 2015

♥♥विध्वंस...♥♥


♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥विध्वंस...♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥
मृत्यु चारों ओर मचलती, अब जीवन का अंश नहीं है। 
कौन सा ऐसा क्षण है जिसमें, मानो के विध्वंस नही है। 
संबंधों की हत्या करना, यहाँ प्रचलन हुआ रोज का,
शेष नही वो रक्त कोशिका, जिसमे दुख का दंश नहीं है। 

मानवता दण्डित होती है, यहाँ भाव मारे जाते हैं। 
जो सबको अपनापन देते, लोग वही हारे जाते हैं। 
अनुरोध या करुण निवेदन, नहीं मान कोई करता है,
सक्षम होकर भी कोई जन, नहीं किसी का दुख हरता है। 

बाहर से उजले हैं किन्तु, मन से कोई हंस नही है। 
मृत्यु चारों ओर मचलती, अब जीवन का अंश नहीं है.... 

बुद्धि शायद मंद है मेरी, नहीं आंकलन कर पाता हूँ। 
निर्दोषों को दंड दे सकूँ, नहीं प्रचलन कर पाता हूँ। 
"देव" सिमट जाता हूँ स्वयं मैं, अपने अश्रु पी लेता हूँ,
मैं चाहकर भी पाषाणों सा, चाल चलन नही कर पाता हूँ। 

भाषा मैंने प्रेम की बोली, हिंसा का अपभ्रंश नहीं है। 
मृत्यु चारों ओर मचलती, अब जीवन का अंश नहीं है। "

................चेतन रामकिशन "देव"....................
दिनांक-१६.०३.२०१५

Saturday, 14 March 2015

♥♥अंगारों की बारिश...♥♥


♥♥♥♥♥♥♥अंगारों की बारिश...♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥
अंगारों की बारिश देखी, अश्क़ों का सागर देखा है। 
बिना जुर्म के सजा सही है, अपना जलता घर देखा है। 
यहाँ झूठ की चले गवाही, सच की कीमत है कौड़ी में,
कातिल के क़दमों के नीचे, कानूनों का सर देखा है। 

इंसानों की बोली लगती, रिश्तों का सौदा होता है। 
यहाँ लोग मर जायें रोकर, नहीं किसी को दुख होता है। 
रौंद की सारी मानवता को, लोग करें तेजाब की बारिश,
उजड़ेगा संसार किसी का, नहीं सोच ये डर होता है। 

यहाँ भावना की अनदेखी, और साँसों पे कर देखा है। 
अंगारों की बारिश देखी, अश्क़ों का सागर देखा है....

दो रोटी से रहे मयस्सर, मुफ़लिस भूखा मर जाता है। 
जिसको समझो सुख की सरिता, वही दर्द से भर जाता है। 
"देव" यहाँ सुनने को मिलता, प्यार खुदा का नाम जहाँ में,
तो आखिर क्यों नाम प्यार का, टुकड़े टुकड़े हो जाता है। 

न सोखा एक शख़्स ने आकर, आँखों ने बहकर देखा है।  
अंगारों की बारिश देखी, अश्क़ों का सागर देखा है। "
   
................चेतन रामकिशन "देव"....................
दिनांक-१५.०३.२०१५


♥♥प्रत्यावेदन ..♥♥



♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥प्रत्यावेदन ..♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥
यदि हमारा प्रत्यावेदन प्रेम का, जो स्वीकार हो गया। 
तो समझूंगा एहसासों का, जीवन में सत्कार हो गया। 
और यदि फिर से ठुकराया, तुमने मेरा प्रेम निवेदन,
तो निश्चित ही मेरा जीवन, कंटक, झाड़ी, ख़ार हो गया। 

दिल तेरे क़दमों में रखा, इससे ज्यादा कर न पाऊं। 
प्यार बहुत गहरा है तुमसे, कमी तुम्हारी भर न पाऊं। 

बहेंगे आंसू, काले बादल, सूरत का सिंगार हो गया। 
यदि हमारा प्रत्यावेदन प्रेम का, जो स्वीकार हो गया... 

फिर से सोचो, मेरी पीड़ा, जरा समझ लो ये कहता हूँ। 
तुमको सबको कुछ बता दिया है, बिन तेरे कैसे रहता हूँ। 
"देव" हमारा उजड़ा चेहरा, देखके सब पत्थर बरसाते,
मैं छोटे से दिल का मालिक, दुनिया भर के गम सहता हूँ। 

सब कुछ कह डाला लफ़्ज़ों ने, चलो हमें चुप हो जाने दो। 
नींद नहीं आयेगी लेकिन, झूठमूठ का सो जाने दो।

लगता है भावों का याचन,  रद्दी सा, बेकार हो गया। 
यदि हमारा प्रत्यावेदन प्रेम का, जो स्वीकार हो गया। "

...................चेतन रामकिशन "देव"..................
दिनांक-१४.०३.२०१५

Friday, 13 March 2015

♥♥♥धुंध...♥♥♥


♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥धुंध...♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥
नया सवेरा आया लेकिन, धुंध नही हटती है मन की। 
उम्मीदें रखता हूँ फिर भी, क्यों टूटी है लय जीवन की। 
जिसको अपना समझा वो ही, मारके पत्थर घायल करता,
नहीं पता कब अंतिम होगी, पीड़ा मेरे अंतर्मन की। 

मुख पे झूठी हंसी दिखाकर, मैंने अश्रुपान किया है।
लोग यहाँ उपहास उड़ाते, मैंने पर सम्मान किया है। 
कोशिश की सबके घावों पर, मरहम सुख का लगा सकूँ मैं,
पर लोगों ने इसके बदले, मेरा तो अपमान किया है। 

पांव फट गये धूप में तपकर, नहीं चमक बाकी है तन की। 
नया सवेरा आया लेकिन, धुंध नही हटती है मन की ...

चलो लोग जैसा भी कर लें, उनकी नीति, उनका मन है। 
मेरे दिल में नहीं है नफरत, न हिंसा का स्पंदन है। 
"देव" हमे कुदरत ने भेजा, अंतिम साँस तलक जीने को,
इसीलिए हर ग़म सहकर के, काट लिया अपना जीवन है। 

रात की रानी नहीं महकती, सूख गयी तुलसी आँगन की। 
नया सवेरा आया लेकिन, धुंध नही हटती है मन की। "

.....................चेतन रामकिशन "देव"........................
दिनांक-१४.०३.२०१५


♥♥♥तुम बिन...♥♥♥


♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥तुम बिन...♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥
तुम बिन क्यों धरती सूनी है, तुम बिन क्यों अम्बर खाली है। 
तुम बिन क्यों आंसू बहते हैं, तुम बिन कैसी बेहाली है। 
तुमसे शायद मेरा नाता, है खुद के जीवन से बढ़कर,
तभी नहीं तुम बिन होली है, नहीं हमारी दीवाली है। 

अब समझा मैं प्यार में कोई, यहाँ निहित जब हो जाता है। 
तो उसके जीवन का पल पल, एहसासों में खो जाता है। 
यदि मिलन के क्षण आयें तो, वो खिल जाता है फूलों सा,
मगर विरह के एहसासों में, एक दम से मुरझा जाता है। 

तभी मैं सोचूं क्यों बिन तेरे, सूख गयी हर एक डाली है, 
तुम बिन क्यों धरती सूनी है, तुम बिन क्यों अम्बर खाली है ...

नहीं पता तुम कब आओगे, हर दिन जीवन कम होता है। 
बिना तुम्हारे हंसना भूला, इतना ज्यादा ग़म होता है। 
"देव" न जाने तुम क्यों आखिर, नहीं समझते मेरी बेबसी,
मेरी पीड़ा देखके जबकि, आसमान भी नम होता है। 

बिना तुम्हारे धवल चांदनी, मेरी खातिर तो काली है। 
तुम बिन क्यों धरती सूनी है, तुम बिन क्यों अम्बर खाली है। "

......................चेतन रामकिशन "देव"........................
दिनांक-१३.०३.२०१५

Thursday, 12 March 2015

♥♥इतिहास...♥♥



♥♥♥♥♥इतिहास...♥♥♥♥♥♥♥
प्रेम का हर इतिहास तुम्ही से। 
कायम है एहसास तुम्ही से। 
तुम वर्णित हो प्रेम कथा में,
बरसाने का रास तुम्ही से। 
तुम्हे देखकर हंस लेता हूँ,
मेरा हर उल्लास तुम्ही से। 
तुम मुझको प्रेरित करती हो,
है मेरा प्रयास तुम्ही से। 

तुम वीणा की मधुर तान में,
तुम गायन के सात स्वर में। 
खुशियां आँगन में रहती हैं,
तुमसे ही रौनक है घर में। 

तुमसे हरी भरी पृथ्वी है,
और नीला आकाश तुम्ही से। 
तुम मुझको प्रेरित करती हो,
है मेरा प्रयास तुम्ही से ...

तुम रंगोली के रंगों में,
तुमसे आलेखन बनता है। 
बिना तुम्हारे मैं अपूर्ण हूँ,
तुमसे ही जीवन बनता है। 
केश तुम्हारे इतने प्यारे,
मुझे बचाते कड़ी धूप से,
तुम घर की आधार कड़ी हो,
तुमसे ही आँगन बनता है। 

तुमसे ही कविता रचती है,
भावों का अभ्यास तुम्ही से। 
तुम मुझको प्रेरित करती हो,
है मेरा प्रयास तुम्ही से ...

तुम आकर्षक, मनोहारी हो,
और आत्मा से प्यारी हो। 
एक दूजे के एहसासों में,
जीवन की साझेदारी हो। 
"देव" तुम्हारे प्रेम को पाकर,
पतझड़ में सावन बरसा है,
तुम बगिया की हरियाली में,
तुम फूलों की फुलवारी हो। 

तुम्ही साल में, तुम जीवन भर,
दिवस, निशा, हर मास तुम्ही से। 
तुम मुझको प्रेरित करती हो,
है मेरा प्रयास तुम्ही से। "

.....चेतन रामकिशन "देव".......
दिनांक-१२.०३.२०१५

Wednesday, 11 March 2015

♥♥फसल...♥♥


♥♥♥♥♥♥फसल...♥♥♥♥♥♥♥
फसल ग़मों की बड़ी हो गयी,
करें काटने की तैयारी। 
विष पीकर के रात कटी थी,
अब आयी है दिन की बारी। 
अपने हर एहसास को मैंने,
मिट्टी में अब मिला दिया है,
क्यूंकि दुनिया में नहीं होती,
दिल से दिल की नातेदारी। 

एहसासों की कद्र नहीं है,
सभी वसीयत चाहते सुख की। 
कोई नहीं पढ़ना चाहता है,
पीड़ा यहाँ किसी के मुख की। 

कोई नहीं हमदर्द है तो फिर,
दर्द की किससे साझेदारी। 
फसल ग़मों की बड़ी हो गयी,
करें काटने की तैयारी ... 

अनुकरण के भाव नहीं हैं,
सब उपदेशक बनना चाहें। 
खुद का जीवन नहीं संभलता,
पर निर्देशक बनना चाहें। 
"देव" यहाँ पर मिन्नत कोई,
नहीं सुना करता है देखो,
लेकिन पुस्तक के पन्नों पर,
प्रेम के प्रेषक बनना चाहें।

दिवस रात बढ़ती रहती है, 
जीवन में ग़म बीमारी।  
फसल ग़मों की बड़ी हो गयी,
करें काटने की तैयारी। "

.......चेतन रामकिशन "देव"........
दिनांक-१२.०३.२०१५

♥♥नीला आसमान...♥


♥♥♥नीला आसमान...♥♥♥
तुम से है एहसास सजीला। 
ग़ुल सरसों का तुमसे पीला। 
तुम आयीं तो दमक उठा मन,
जीवन मेरा रंग रंगीला। 
सखी प्रेम की वर्षा कर दो,
हो जाये पतझड़ भी गीला। 
हम दोनों का प्यार देखकर,
आसमान भी होता नीला। 

सखी दूर जब तुम जाती हो,
तो रोने का मन होता है। 
बिना तुम्हारे नहीं रात को,
भी सोने का मन होता है। 
हाथ थामकर तेरा जग में,
अपनी सुबहो शाम करूँ मैं,
तेरे प्यार के इन्द्रधनुष में,
बस खोने का मन होता है। 

तुमसे ही खुश होता आँगन,
तुमसे कुनबा और कबीला। 
हम दोनों का प्यार देखकर,
आसमान भी होता नीला ...

सखी परस्पर एहसासों में,
जब हम दोनों मिल जाते हैं। 
मन से ग़म का पतझड़ मिटता,
फूल ख़ुशी के खिल जाते हैं। 
"देव" तुम्हारा कुछ लम्हों का,
साथ मुझे देता है ऊर्जा,
तुमसे मिलकर खुशहाली के,
द्वार अनेकों खुल जाते हैं। 

तेरी प्रेम की ऊर्जा पाकर,
गिर जाता है ग़म का टीला। 
हम दोनों का प्यार देखकर,
आसमान भी होता नीला। "

........चेतन रामकिशन "देव".........
दिनांक-११.०३.२०१५

Tuesday, 10 March 2015

♥♥♥गुलदस्ते...♥♥♥

♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥गुलदस्ते...♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥
सोचा था कुछ फूल खिलेंगे, यही सोच गुलदस्ते लाया।
अरसा बीता किसी डाल पर, फूल कोई लेकिन न आया।
यूँ तो मैंने हर दम उसको, अपने अश्कों से सींचा था,
रही कौनसी कमी आज तक, नहीं किसी ने भी समझाया।

नागफनी जैसी रातें हों और कंटीला दिन होता है।
ऑंखें रोकर लाल हो गयीं हैं, और हमारा मन रोता है।
मंचों पर जाकर पढ़ते वो, प्रेम भाव की बड़ी कविता,
पर सीने में झांकके देखो, उनका छोटा दिल होता है।

किस्मत को मंजूर न शायद, हसीं बहारों का वो साया।
सोचा था कुछ फूल खिलेंगे, यही सोच गुलदस्ते लाया...

चलो मुझे पतझड़ प्यारा है, और बिना गुल की डाली भी।
जो दे दो मंजूर  है मुझको, तड़प, वेदना, तंगहाली भी।
"देव" यदि तुम खुश होते हो, मेरे घर को फूंक फूंककर,
तो आ जाओ, नहीं रोकता, चलो मना लो दिवाली भी।

मेरी तो आदत है यारों, दुश्मन को भी गले लगाया।
सोचा था कुछ फूल खिलेंगे, यही सोच गुलदस्ते लाया। "

 ...................चेतन रामकिशन "देव"..................
दिनांक-१०.०३.२०१५







 

Monday, 9 March 2015

♥♥मेरे मन की...♥♥


♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥मेरे मन की...♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥
मेरे मन की भी सुनते तुम, बस अपना निर्णय देते हो। 
मेरा जीवन शांत नदी सा, लेकिन तुम प्रलय देते हो। 
तुम अपनी खातिर खुशियों का, ताना बाना बुनना चाहो,
लेकिन मेरी हंसी ख़ुशी में, तुम क्यों आखिर क्षय देते हो। 

इस एकतरफा सोच को देखो, नहीं प्रीत बोला जाता है। 
प्रीत के रिश्ते को दुनिया में, न धन से तौला जाता है। 

मुझे गिराकर क्यों तुम आखिर, सोच को अपनी जय देते हो। 
मेरे मन की भी सुनते तुम, बस अपना निर्णय देते हो...

तुमसे अपनी प्रीत के बदले, बस थोड़ा सा प्यार ही चाहा। 
नाम मुझे तुम दे दो अपना, इतना सा ही अधिकार ही चाहा। 
"देव" तुम्हे मैंने जीवन में, मान दिया है खुद से ज्यादा,
मैंने तुमसे उसके बदले, मुट्ठी भर सत्कार ही चाहा। 

काश मेरी चीखों को सुनकर, निकट हमारे तुम आ जाते। 
सच कहती हूँ मेरे मन पे, चाहत के बादल छा जाते। 

मैं चाहती हूँ मिलन प्यार का, तुम विरह का भय देते हो। 
मेरे मन की भी सुनते तुम, बस अपना निर्णय देते हो। "


....................चेतन रामकिशन "देव".....................
दिनांक-०९.०३.२०१५



Sunday, 8 March 2015

♥♥तेरे केश की बूंदें...♥♥


♥♥♥♥♥♥♥♥♥तेरे केश की बूंदें...♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥
यदि मिलन तुमसे हो जाता, भाव विरह का कम हो जाता। 
गिरती बूंदें तेरे केश से, सूखा पथ भी नम हो जाता।
मुझमें भी आ जाती ऊर्जा, स्वप्न मेरी आँखों में सजते,
दीप हर्ष के जलने लगते, दूर ये सारा तम हो जाता। 

रात को तेरा रस्ता देखा, हर दिन तुम्हें पुकारा मैंने। 
खुद को पत्थर माना किन्तु, तुमको चाँद सितारा मैंने। 
चित्र तुम्हारा सम्मुख रखकर, किया हमेशा प्रेम निवेदन,
अनजाने में भूल हुयी पर, खेद यहाँ स्वीकारा मैंने... 

जीने को तो जी लेता हूँ, पर तुम बिन उत्साह नहीं है। 
जगत समूचा पास है किन्तु, मुझे किसी की चाह नहीं है। 
"देव" जुड़ा है मन तुमसे तो, तभी तेरी प्रतीक्षा करता,
वरना दुनिया आनी जानी, मुझे किसी की राह नहीं है... 

तुम जो देतीं साथ अगर तो, मैं भी बल विक्रम हो जाता। 
दीप हर्ष के जलने लगते, दूर ये सारा तम हो जाता। "

....................चेतन रामकिशन "देव".....................
दिनांक-०८.०३.२०१५

Saturday, 7 March 2015

♥♥एक नारी...♥♥



♥♥♥♥♥♥♥♥♥एक नारी...♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥
एक नारी वेदना के विष को, निश दिन पी रही है। 
एक नारी जिंदगी को, दंड जैसे जी रही है। 
हाँ सही अपवाद हैं कुछ, पर यही अधिकांशत है,
एक नारी अपने मन के टुकड़े, खुद ही सी रही है। 

उसके मन में है समर्पण, जिसकी सीमा तय नहीं है। 
क्यों मगर स्त्री की फिर भी, इस जगत में जय नहीं है। 
कौन ऐसा रास्ता है, वो जहाँ पर हो सुरक्षित,
कौन सी ऐसी जगह है, उसको जिस पर भय नहीं है। 

अपने अश्रु भोर, संध्या, रात, दिन वो पी रही है। 
एक नारी वेदना के विष को, निश दिन पी रही है... 

वो नहीं चाहती समूचे, विश्व पर हो राज उसका। 
वो तो चाहती है ख़ुशी से, पूर्ण हो कल-आज उसका। 
उसके मन की वेदना को, कोई बस पढ़ले यहाँ पर। 
तो ही स्त्री खुश रहेगी, अपनी दुनिया और जहाँ पर। 

अपने घर की पूर्णता को, रिक्त होकर जी रही है। 
एक नारी वेदना के विष को, निश दिन पी रही है...

उसका आँचल रक्त में, डूबे नहीं प्रयास दे दो। 
वो भी चाहती है दमकना, उसको तुम उल्लास दे दो। 
"देव" नारी भी पराक्रम और पूरित योग्यता से,
वो तुम्हे दे चांदनी और तुम उसे प्रकाश दे दो। 

मल दो मरहम घाव पे वो, जिसको नारी सी रही है। 
एक नारी वेदना के विष को, निश दिन पी रही है। "


" अपने त्याग, समर्पण एवं स्नेह से, आँगन में जीवन भरने वाली, महिला शक्ति नमन के योग्य है, एक ऐसा जगत बन सके जहाँ नारी और पुरुष, दो ध्रुव नहीं बल्कि एक पृथ्वी, एक आसमान, एक ब्रहमांड बन जाएँ, निहित हो जायें, मान-सम्मान और स्वाभिमान, इसी कामना में। "

चेतन रामकिशन "देव"
दिनांक-०८.०३.२०१५ 

" सर्वाधिकार सुरक्षित, मेरी ये रचना मेरे ब्लॉग पर पूर्व प्रकाशित है। "

♥♥मन की भाषा...♥♥


♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥मन की भाषा...♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥
पढ़े-लिखे तो बहुत थे तुम पर, मन की भाषा जान सके न। 
मेरे सीने में भी दिल था, तुम उसको पहचान सके न। 
सागर जैसे आंसू देकर, मुझसे नाता तोड़ गये हो,
नाम का था शायद अपनापन, दिल से अपना मान सके न।

बस तुमसे है यही पूछना, क्यों जीवन में तुम आये थे। 
इसी तरह ग़र तड़पाना था, क्यों फिर संग संग मुस्काये थे। 

बड़ी बड़ी कसमें खाते थे, पर तुमको उनको ठान सके न। 
पढ़े-लिखे तो बहुत थे तुम पर, मन की भाषा जान सके न... 

आज कलंकित बतलाते हो, कल लेकिन पावन कहते थे। 
आज मुझे मृत्यु का दर्जा, कल लेकिन जीवन कहते थे। 
"देव" जहाँ में रंग बदलना, कोई सीखे आखिर तुमसे,
आज मुझे पतझड़ बतलाया, कल जबकि सावन कहते थे। 

आज मेरी पीड़ा पे खुश हो, कल कैसे आंसू बहते थे। 
तोड़ रहे हो तुम उस दिल को, जिस दिल में बस तुम रहते थे। 

मूकबधिर मुझको कहते हो, आह मगर तुम जान सके न। 
पढ़े-लिखे तो बहुत थे तुम पर, मन की भाषा जान सके न। "

......................चेतन रामकिशन "देव"......................
दिनांक-०७.०३.२०१५

Friday, 6 March 2015

♥♥प्रेम का गंगा जल ...♥♥


♥♥♥♥♥♥♥♥♥प्रेम का गंगा जल ...♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥
पावन हो जायेगा जीवन, प्रेम का तुम गंगा जल दे दो। 
जीवन में भी प्रगति होगी, समस्याओं का तुम हल दे दो। 
कल तुमसे था, आज तुम्ही से, साँझ सवेरा सब कुछ तुमसे,
जीवन उज्जवल हो जायेगा, शेष काल तुम कल दे दो। 

तुम नयनों की ज्योति जैसी, मन में आशा भर देती हो। 
तुम मेरे छोटे सपनों को, उड़ने हेतु पर देती हो। 

निहित तुम्हीं में प्रेम आस्था, मुझको मुंहमांगा फल दे दो। 
पावन हो जायेगा जीवन, प्रेम का तुम गंगा जल दे दो...

साथ तुम्हारे पहली होली, फागुन की उपलब्धि जैसी। 
तुमसे ही जीवन में बरकत, जीवन की समृद्धि जैसी। 
"देव" तुम्ही से चमक रहा मन, धवल चाँद की किरणों जैसा,
तुम जीवन में निश्छल मूरत, तुम जीवन की शुद्धि जैसी।

तुम्हें देखना चाहें आँखें, इंतजार करती रहती है।
तुम क्या जानो बिना तुम्हारे, कितना ये बहती रहती हैं। 

पाना चाहूँ तेरी निकटता, मुझको अपना आँचल दे दो। 
पावन हो जायेगा जीवन, प्रेम का तुम गंगा जल दे दो। "

...................चेतन रामकिशन "देव".....................
दिनांक-०६.०३.२०१५

Wednesday, 4 March 2015

♥♥रंग रुधिर का...♥♥

♥♥♥♥रंग रुधिर का...♥♥♥♥
रंग रुधिर का बहुत बहा है।
अब अपनापन कहाँ रहा है।
बंटे बंटे त्यौहार सभी के,
मानवता ने दमन सहा है।
देश के दुश्मन निर्दोषों के,
रक्त से होली खेल रहें हैं,
है निर्धन की स्याह कोठरी,
चूल्हा, छप्पर सभी ढ़हा है।

रहें वर्ष भर पीड़ा देते,
किन्तु एक दिन रंग लगायें।
मन से मन तो मिला नहीं पर,
लेकिन सीने से लग जायें।
हाँ अच्छा है दूरी मिटना,
पर न बस खानापूरी हो।
होली का त्यौहार बाद में,
पहले न दिल में दूरी हो।

पीड़ित की तो आह निकलती,
शोषक को, आनंद अहा! है।
है निर्धन की स्याह कोठरी,
चूल्हा, छप्पर सभी ढ़हा है....

नहीं नाम को रंग लगाओ,
नहीं किसी को गले लगाओ।
नहीं मोहब्बत है जो दिल में,
साथ झूठ को, नहीं निभाओ।
"देव" किसी की लाश के ऊपर,
ताजमहल बनवाने से तो,
बेहतर है भूखे प्यासे को,
तीन वक़्त का अन्न खिलाओ।

हो सबको त्यौहार मुबारक,
हमने रब से यही कहा है। 
है निर्धन की स्याह कोठरी,
चूल्हा, छप्पर सभी ढ़हा है। "

....चेतन रामकिशन "देव".....
दिनांक-०५.०३.२०१५


Tuesday, 3 March 2015

♥♥पुनर्गठन...♥♥


♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥पुनर्गठन...♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥
अपने खंडित मन का फिर से, पुनर्गठन करना चाहता हूँ। 
मैं पीड़ा के विस्थापन को, घोर जतन करना चाहता हूँ। 
नया नवेला दुःख न कोई, मेरे जीवन को मुरझाये,
इसीलिए मैं अपने भीतर, आज अगन भरना चाहता हूँ। 

हाँ मैंने जाना जीवन में, लोग अधिकतर छल करते हैं। 
नहीं सूखता कभी सरोवर, नयन में इतना जल भरते हैं। 
करुण निवेदन की अनदेखी, और केवल हठधर्मी होना,
मेरी कोई कठिनाई का, नहीं जरा भी हल करते हैं। 

तभी मैं खुद ही कठिनाई का, बहिर्गमन करना चाहता हूँ। 
अपने खंडित मन का फिर से, पुनर्गठन करना चाहता हूँ... 

हूँ अपराधी नहीं मुझे पर, दंड बहुत सहना पड़ता हूँ। 
एकाकीपन की धरती पर, बिन इच्छा रहना पड़ता है। 
"देव" हूँ मानव मैं भी तुमसा, क्यों मुझको पाषाण समझते,
सोच सोच कर यही सभी कुछ, आँखों को बहना पड़ता है। 

इस पीड़ा की जिजिभिषा का, प्रबंधन करना चाहता हूँ। 
अपने खंडित मन का फिर से, पुनर्गठन करना चाहता हूँ। "

.....................चेतन रामकिशन "देव".....................
दिनांक-०३.०३.२०१५

Monday, 2 March 2015

♥♥♥अंगारे...♥♥♥


♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥अंगारे...♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥
आग लगाकर खुश होते हैं, जहर पिलाकर खुश होते हैं। 
लोग यहाँ पत्थर दिल वाले, खून बहाकर खुश होते हैं। 

क्या दुनिया है समझ न पाया, इसीलिए मैं मौन हुआ हूँ। 
कल तक जिनका हमसाया था, आज मैं उनको कौन हुआ हूँ। 
गुमसुम होकर, आँख मूंदकर, दर्द हर एक मैं सह लेता हूँ। 
मेरे संग, मेरी तन्हाई,  उससे दिल की कह लेता हूँ। 

जो देता है यहाँ सहारा, उसे गिराकर खुश होते हैं। 
लोग यहाँ पत्थर दिल वाले, खून बहाकर खुश होते हैं.... 

बिना जुर्म के सज़ा मिली तो, विस्फोटक तो बनना ही था। 
आस छोड़कर सबकी खुद का, संकटमोचक बनना ही था। 
"देव" किसी मासूम पे जग में, जब कौड़े हंटर चलते हैं। 
तब ही उसके कोमल दिल में, अंगारे हर दिन जलते हैं।

नन्हीं मुन्ही हरियाली को, ख़ार बनाकर खुश होते हैं। 
लोग यहाँ पत्थर दिल वाले, खून बहाकर खुश होते हैं। "

...................चेतन रामकिशन "देव"...................
दिनांक-०३.०३.२०१५





♥♥♥कैसी होली..♥♥♥


♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥कैसी होली..♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥
विरह में डूबी रात कठिन है, तिमिर बहुत गहरा छाया है। 
दिन भी बीता सुबक सुबक कर, चैन नहीं पल को आया है। 
आँखों में लाली छाई है और चेहरे पे बड़ी उदासी,
बिना तुम्हारे रंग हैं फीके, होली पे दिल भर आया है। 

तुमने दिल की सुनी नहीं क्यों, क्यों मुझसे नाता तोड़ा है। 
नहीं ख़ुदकुशी मुझे गवारा, पर जीवन भी कब छोड़ा है। 

तुम बिन हंसी, ख़ुशी सब भूला, कदम कदम पे ग़म पाया है। 
विरह में डूबी रात कठिन है, तिमिर बहुत गहरा छाया है.... 

रंगों का त्यौहार निकट है, होली पे वापस आ जाना। 
तरस गया हूँ मैं खिलने को, मुझे प्यार का रंग लगाना। 
"देव" तुम्हारे बिन अरसे से, नींद नहीं आई आँखों को,
गोद में मेरा सर रखकर के, मुझको मीठी नींद सुलाना। 

तुम आओगी तो होली पर, रंग हजारों खिल जायेंगे। 
चाँद चांदनी बरसायेगा, जब हम दोनों मिल जायेंगे। 

दुनिया में हैं लोग करोड़ों, नहीं मगर तुमसे पाया है। 
विरह में डूबी रात कठिन है, तिमिर बहुत गहरा छाया है। "

....................चेतन रामकिशन "देव"........................
दिनांक-०२.०३.२०१५

Sunday, 1 March 2015

♥♥♥♥खत...♥♥♥♥


♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥खत...♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥
किसी के वास्ते लिखा हुआ ख़त, लौट आया है। 
वो मुझको भूल बैठा या पता झूठा बताया है। 
मैं अपने खत को हाथों में, पकड़ जो देखने बैठा,
लगा के मेरे लफ़्ज़ों ने, बड़ा सागर बहाया है। 

वफ़ा के साथ में अक्सर, यही खिलवाड़ क्यों होता। 
कोई चिट्ठी न अपनाये, पता सच्चा नही होता। 

इन्हीं सब उलझनों ने आज फिर से, दिल दुखाया है। 
किसी के वास्ते लिखा हुआ ख़त, लौट आया है.... 

नहीं मालूम क्यों एहसास की, कीमत नहीं होती। 
मेरी चिट्ठी यही सब सोचकर के, ग़मज़दा होती। 
भरोसा टूटने लगता है मेरा "देव" उस लम्हा,
किसी के प्यार की क्यों कर, यहाँ इज़्ज़त नहीं होती। 

तड़पती अपनी चिट्ठी को, मैं सीने से लगाता हूँ। 
यहाँ कोई नहीं सुनता, उसे मैं चुप कराता हूँ। 

ये चिट्ठी जब भी रोती है, गले इसको लगाया है। 
किसी के वास्ते लिखा हुआ ख़त, लौट आया है। "

..............चेतन रामकिशन "देव".................
दिनांक-०२.०३.२०१५

♥♥बादल...♥♥


♥♥♥♥♥♥♥♥बादल...♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥
चाँद को शायद चुप करने की ठानी है। 
इसीलिये ये बादल पानी पानी है। 

फ़र्क़ नहीं खेतों की गेंहू बिछ जाये,
बारिश की ये जिद, कैसी मनमानी है। 

टपक रहीं बूंदें, सोने को जगह नहीं,
कब इसने मजबूर की मुश्किल जानी है। 

जब जरुरत हो तब न आये बुलाने से,
ख़ाक कहाँ सूखे की इसने छानी है। 

बूंदें बेशक मोती हैं पर क्या करना,
ग्राम देवता के घर, जो वीरानी है। 

जब अम्बर से बर्फ के टुकड़े बरसेंगे,
फसलें तो हर हाल में, फिर मुरझानी है। 

"देव" न भाये बारिश ये बेमौसम की,
बतला बादल कैसी ये नादानी है। "


.........चेतन रामकिशन "देव".........
दिनांक-०१.०३.२०१५